SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नेत्ररोगचिकित्सा । २०५ के प्रक्षेप की जगह क्षीरकाकोली का प्रक्षेप देना चाहिये। शेष योग पूर्ववत् है। इस योग में यबपि टीकाकार ने आधा पल प्रक्षेप देने को कहा है परन्तु वाग्भट के अनुसार प्रत्येक द्रव्य का १ पल प्रक्षेप देना चाहिये । अतएव हमने भी उसी के अनुसार लिखा है ॥ ३०३ ॥ अधुना त्रिफलाघृतमाह काथेन कल्कविधिना च फलत्रिकस्य पक्कं घृतं जयति नेत्ररुजः समस्ताः । कुष्ठप्रमेहमुखकर्णकपालनासा रोगान् भगन्दरगतिव्रणगण्डमालाः ॥ ३०४ ॥ फलत्रिकस्य त्रिफलायाः क्वाथेन,त्रिफलापलशतं गृहीत्वा सलिलद्रोणे प्रक्वाथ्य चतुर्भानावशेषेण कल्कविधिना च, त्रिफलापलचतुष्टयं कल्कं कृत्वा घृतप्रस्थं पक्कं नेत्ररुजो नेत्ररोगान् समस्तान् निःशेषान् जयति कुष्ठादीन् गण्डमालान्तांश्च जयति ॥ ३०४ ॥ त्रिफला के क्वाथ तथा कल्क से यथाविधि घृतपाक कर सेवन कराने से सम्पूर्ण नेत्ररोग, कुष्ठ, प्रमेह, मुखरोग, कर्णरोग, शिरोरोग, नासारोग, भगन्दर, नाडीव्रण तथा गण्डमाला, प्रभृति रोग नष्ट होते हैं ॥३०॥ इदानीं नेत्रातुरस्य क्रियाक्रममाहस्निग्धं पटोलादिघृतेन पूर्व फलत्रिकायेन घृतेन वापि । नेत्रातुरं शुद्धविरिक्तरक्तमुपाचरेदञ्जनतर्पणाद्यैः ॥ ३०५ ॥ . पूर्व प्रथम पटोलादिघृतेन फलत्रिकायेन वा नेत्रातुरं स्निग्धं ततः शुद्धं च विरिकरकं च । शुद्धं विरेकादिना। विरिक्तरक्कं तरक्तं कृत्वा अअनतर्पणाद्यैरुपक्रमैरुपाचरेदिति ॥ ३०५॥ वैद्य पटोलादिघृत अथवा त्रिफलाद्यघृत से रोगी का स्नेहन एवं वमन, विरेचन आदि द्वारा कायशुद्धि तथा जोंक आदि द्वारा रक्तनिर्हरण करके अञ्जन, तर्पण आदि उपक्रम द्वारा चिकित्सा कर ॥३०५॥ अधुना त्रयाणामपि वातादिजतिमिराणां त्रिफलाज्यस्य प्रत्यनीकत्वमाह तैलेन गव्यहविषा त्वथ माक्षिकेण संयुक्तया त्रिफलया तिमिरामयेषु ।
SR No.002391
Book TitleChikitsa Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendranath Mtra
PublisherMitra Ayurvedic Pharmacy
Publication Year
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy