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उदररोगचिकित्सा |
मृदु च तन्मधु च मृदुमधु । मृदुशब्दस्य सौकुमार्यवाचित्वात् असान्द्रवाचित्वाश्च तद्रूपद्वयस्य माक्षिकस्य ग्रहणम् । तस्य कुडवद्वयं षोडशपलानि तेन सार्द्ध सह । श्वयथुहरः श्वयथुं हरति चरको कोsaलेह इति ॥ १६१ - १६२॥
इति श्वयथुचिकित्सा समाप्ता ।
कंसहरीतकी - दशमूल के १२८ पल काथ में १ तुला गुड को घोल कर उसमें १०० हरड़ें डाल पाक करें । पकते २ जब गाढा होजाय तब नीचे उतार लें। शीतल होने पर त्रिकटु ( मिलित ), छोटी इलायची, तेजपत्र, दारचीनी; प्रत्येक २ पल, यवक्षार ४ पल का प्रक्षेप देकर अच्छी प्रकार आलोडन करें और अन्त में १६ पल शहद मिला लें । मात्रा - - लेह आधा तोला तथा १ हरड़ । यहां पर दशमूल का काथ करते हुए हरड़ों को पोटली में बांध डाल देना चाहिये । क्वाथार्थ - दशमूल (मिलित) ४ प्रस्थ, जल ३२ प्रस्थ, शेष ८ प्रस्थ ( १२८ पल) । पश्चात् गुड़ के साथ पाक करते हुए हरड़ों कों डाल दें । अथवा हरड़ों को स्विन्न न कर गुड़ के साथ पाक करते समय उनके चूर्ण को डाल दें क्षौर गाढ़ा होने पर पूर्ववत् प्रक्षेप आदि दें । हरीतकीचूर्ण के साथ पाक करने पर इसकी मात्रा आधा तोले से १ तोले तक है ॥ १६१ – १६२ ॥ इति आयुर्वेदाचार्य श्रीजयदेव विद्यालंकार विरचितायां परिमलाख्यायां चिकित्साकलिकाव्याख्यायां
थुचिकित्सा समाप्ता ।
अथ उदररोगचिकित्सा ।
श्वयथुचिकित्सानन्तरं यथोद्देशमुदर चिकित्सितमाह -
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रोहीतकत्वत्रिफलाद्रवन्ती
दन्तीकषायः सकटुत्रिकश्च ।
सयावशूकः सकलोदरघ्नः
स्नुपिप्पली वा सकलोदरी ॥ १६३ ॥
रोहीतकादिकषायः सकलोदरघ्नः । रोहीतकत्वक् च त्रिफला च द्रवन्ती च दन्ती च तास्तथा रोहीतकत्वत्रिफलाद्रवन्तीदन्त्यस्तासां कषायः । रोहीतको दाडिमपुष्पकः तस्य त्वक् वल्कलं रोहीत