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विराट की अभीप्सा
ओतप्रोत होकर दुख का अंत करेगा।'
वस्सिका विय पुष्पानि मद्दवानि पमुञ्चति। एवं रागञ्च दोसञ्च विप्पमुञ्चेथ भिक्खवो।।
'जैसे जुही अपने कुम्हलाए फूलों को छोड़ देती है, वैसे ही हे भिक्षुओ, तुम राग और द्वेष को छोड़ दो।' __इसके पहले कि हम सूत्रों पर विपस्सना करें, उन पर ध्यान करें, इस दृश्य को ठीक से मन में बैठ जाने दो।
भगवान जेतवन में विहरते थे।
जैनशास्त्र जब महावीर की बात करते हैं, तो वे कहते हैं : भगवान विराजते थे। बौद्धशास्त्र जब बुद्ध की बात करते हैं, तो वे कहते हैं : विहरते थे।
इन दो शब्दों में भेद है, तात्विक भेद है। विराजना थिरता का प्रतीक है, विहरना गति का।
जैन-दृष्टि में सत्य थिर है; ठहरा हुआ है; सदा एक-रस है। बौद्ध-विचार में सब गतिमान है, प्रवाहमान है; सब बहा जा रहा है। बौद्ध-विचार में ऐसा कहना ही ठीक नहीं है कि कोई चीज है। हर चीज हो रही है।
जैसे हम कहें : वृक्ष है; तो बौद्ध-विचार में ठीक नहीं है ऐसा कहना। क्योंकि जब हम कह रहे हैं : वृक्ष है, तब भी वृक्ष बदल रहा है, हो रहा है। एक पुराना पत्ता टूटकर गिर गया होगा, जब तुमने कहाः वृक्ष है। एक कली खिलती होगी, फूल बनती होगी। एक नया अंकुर आता होगा। एक नयी जड़ निकलती होगी। वृक्ष थोड़ा बड़ा हो गया होगा; थोड़ा बूढ़ा हो गया होगा।
जितनी देर में तुमने कहा, वृक्ष है, उतनी देर में वृक्ष वही नहीं रहा; बदल गया; रूपांतरित हो गया। तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता रूपांतरण, क्योंकि रूपांतरण बड़ा धीमा-धीमा हो रहा है, आहिस्ता हो रहा है; शनैः-शनैः हो रहा है। मगर रूपांतरण तो हो ही रहा है। __ इसलिए बुद्ध तो कहेंगे ऐसा ही कहो कि वृक्ष हो रहा है। है जैसी कोई चीज जगत में नहीं है। सब चीजें हो रही हैं। ____ हम तो नदी तक को कहते हैं कि नदी है! बुद्ध कहते हैं: पहाड़ों को भी मत कहो कि पहाड़ हैं। क्योंकि पहाड़ भी बह रहे हैं। नदी तो बह ही रही है। वह तो हम देखते हैं कि नदी बह रही है, फिर भी कहते हैं, नदी है। ___ तो बुद्ध ने भाषा को भी नए रूप दिए। स्वाभाविक था। जब कोई दर्शन जन्म लेता है, तो उसके साथ ही सब नया हो जाता है; क्योंकि वह हर चीज पर अपने रंग को फेंकता है।
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