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एस धम्मो सनंतनो
___ भगवान जेतवन में विहरते थे। उस समय पांच सौ भिक्षुओं ने भगवान का आशीष ले ध्यान की गहराइयों में उतरने का संकल्प किया। समाधि से कम उनका लक्ष्य नहीं था। गंधकुटी के बाहर ही सुबह के उगते सूरज के साथ वे ध्यान करने बैठे। गंधकुटी के चारों ओर जुही के फूल खिले थे।
शास्ता ने उन भिक्षुओं को कहा ः भिक्षुओ! जुही के खिले इन फूलों को देखते हो? सुबह खिले हैं और सांझ मुर्झ जाएंगे, ऐसा ही क्षणभंगुर जीवन है। अभी है, अभी नहीं है। इन फूलों को ध्यान में रखना भिक्षुओ! यह स्मृति ही क्षणभंगुर के पार ले जाने वाली नौका है।
भिक्षुओं ने फूलों को देखा और संकल्प कियाः संध्या तुम्हारे कुम्हलाकर गिरने के पूर्व ही हम ध्यान को उपलब्ध होंगे, हम रागादि से मुक्त होंगे। फूलो! तुम हमारे साक्षी हो।
भगवान ने साधु! साधु ! कहकर अपने आशीषों की वर्षा की। और तभी उन्होंने ये गाथाएं कही थीं:
सुझागारं पविट्ठस्स संतचित्तस्स भिक्खुनो। अमानुसी रती होति सम्माधम्मं विपस्सतो।।
'शून्य गृह में प्रविष्ट शांत-चित्त भिक्षु को भली-भांति से धर्म की विपस्सना करते हुए अमानुषी रति प्राप्त होती है।'
यतो यतो सम्मसति खन्धानं उदयब्बयं। लभती पीतिपामोज्जं अमतं तं विजानतं।।
'जैसे-जैसे भिक्षु पांच स्कंधों-रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान-की उत्पत्ति और विनाश पर विचार करता है, वैसे-वैसे वह ज्ञानियों की प्रीति और प्रमोद रूपी अमृत को प्राप्त करता है।'
पटिसन्थावुत्तस्स आचारकुसलो सिया। ततो पामोज्जबहुलो दुक्खस्सन्तं करिस्सति।।
'जो सेवा-सत्कार स्वभाव वाला है और आचार-कुशल है, वह आनंद से
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