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________________ संन्यास की मंगल-वेला ___ उसने लौटकर अपने साथियों को भी यह बात कही—कि हम कूड़ा-कर्कट ढो रहे हैं। सोना वहां लुट रहा है। क्योंकि उपासिका ने कहा : जा, ले जाने दे उनको जो ले जाना है। तू उपदेश में विघ्न मत कर। वहां कुछ अमृत बरस रहा है मित्रो! हम भी चलें। वहां कुछ मिल रहा है उस स्त्री को, जिसकी हमें कोई भी खबर नहीं है। कोई भीतरी संपदा बरसती है। कुछ लुट रहा है वहां और हम कूड़ा-कर्कट... । उन्हें भी बात जंची। फिर उन्होंने चुराया हुआ सामान पुनः पूर्ववत रखा और सभी धर्म-सभा में आकर उपदेश सुनने बैठ गए। वहां उन्होंने अमृत बरसते देखा। वहां उन्होंने अलौकिक संपदा देखी। उसे फिर उन्होंने जी भरकर लूटा। चोर ही थे। फिर लूटने में उन्होंने कोई कमी नहीं की। कोई दुकानदार नहीं थे कि लूटने में डरते। उन्होंने दिल भरकर लूटा। उन्होंने दिल भरकर पीया। शायद जन्मों-जन्मों से इसी संपदा की तलाश थी, इसीलिए चोर बने घूमते थे। फिर सभा की समाप्ति पर वे सब उपासिका के पैरों पर गिरकर क्षमा मांगे। चोरों के सरदार ने उपासिका से कहाः आप हमारी गुरु हैं। अब हमें अपने बेटे से प्रव्रज्या दिलवाएं। उपासिका अपने पुत्र से प्रार्थना कर उन्हें दीक्षित करायी। वे चोर अति आनंदित थे और संन्यस्त हो एकांत में वास करने लगे; मौन रहने लगे और ध्यान में डूबने लगे। उन्होंने शीघ्र ही ध्यान की संपदा पायी। __ भगवान ने ये सूत्र इन्हीं भूतपूर्व और अभूतपूर्व चोरों से कहे थे। सिञ्च भिक्खु ! इमं नावं सित्ता ते लहुमेस्सति। छेत्त्वा रागञ्च दोसञ्च ततो निब्बाणमेहिसि।। 'हे भिक्षु, इस नाव को उलीचो; उलीचने पर यह तुम्हारे लिए हलकी हो जाएगी। राग और द्वेष को छिन्न कर फिर तुम निर्वाण को प्राप्त कर लोगे।' पञ्च छिन्दं पञ्च जहे पञ्च चुत्तरि भावये। पञ्च संगातिगो भिक्खु ओघतिण्णोति वुच्चति ।। 'जो पांच को काट दे, पांच को छोड़े, पांच की भावना करे और पांच के संग का अतिक्रमण कर जाए, उसी को बाढ़ को पार कर गया भिक्षु कहते हैं।' नत्थि झानं अपञ्चस्स पञ्जा नत्थि अझायतो। यम्हि झानञ्च पञ्जा च स वे निब्बाणसन्तिके।। 'प्रज्ञाहीन मनुष्य को ध्यान नहीं होता; ध्यान न करने वाले को प्रज्ञा नहीं होती। 25
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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