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एस धम्मो सनंतनो
तत्क्षण गिर जाता है।
तुम मेरे को गिराओ, मैं अपने से गिर जाता है। और उस मैं के गिर जाने का नाम-भिक्षु। मैं का गिर जाना यानी शून्य हो जाना। वह जो भिक्षु के हाथ में भिक्षापात्र है, वह अगर हाथ में ही हो, तो बेकार है। वह उसकी आत्मा में होना चाहिए, तभी सार्थक है। . द्वितीय दृश्यः
भगवान के अग्रणी शिष्यों में से एक महाकात्यायन के शिष्य कुटिकण्ण सोण स्थविर कुररघर से जेतवन जा भगवान का दर्शन कर जब वापस आए, तब उनकी मां ने एक दिन उनके उपदेश सुनने के लिए जिज्ञासा की और नगर में भेरी बजवाकर सबके साथ उनके पास उपदेश सुनने गयी। जिस समय वह उपदेश सुन रही थी, उसी समय चोरों के एक बड़े गिरोह ने उसके घर में सेंध लगाकर सोना-चांदी, हीरे-जवाहरात आदि ढोना शुरू कर दिया। एक दासी ने चोरों को घर में प्रवेश किया देख उपासिका को जाकर कहा।
उपासिका हंसी और बोली : जा, चोरों की जो इच्छा हो सो ले जावें; तू उपदेश सुनने में विघ्न न डाल।
चोरों का सरदार, जो कि दासी के पीछे-पीछे उपासिका की प्रतिक्रिया देखने आया था, यह सुनकर ठगा रह गया, अवाक रह गया। उसने तो खतरे की अपेक्षा की थी। __वह उपासिका बड़ी धनी थी। उस नगर की सबसे धनी व्यक्ति थी। उसके इशारे पर हजारों लोग चोरों को घेर लेते। चोरों का भागना मुश्किल हो जाता। चोरों का सरदार तो डर के कारण ही पीछे-पीछे गया था कि अब देखें, क्या होता है। यह उपासिका क्या प्रतिक्रिया करती है!
और उपासिका ने कहाः देख, जा; चोरों की जो इच्छा हो, सो ले जावें। तू उपदेश सुनने में विघ्न न डाल।
स्वभावतः, चोरों का सरदार अवाक रह गया। उसने तो खतरे की अपेक्षा की थी। लेकिन उपासिका के वे थोड़े से शब्द उसके जीवन को बदल गए। उन थोड़े से शब्दों से जैसे चिनगारी पड़ गयी; जैसे किसी ने उसे सोते से जगा दिया हो। जैसे एक सपना टूट गया। जैसे पहली बार आंख खुली और सूरज के दर्शन हुए। वह जागा इस सत्य के प्रति कि सोना-चांदी, हीरे-जवाहरातों से भी ज्यादा कुछ मूल्यवान जरूर होना चाहिए। अन्यथा हम हीरे-जवाहरात ढो रहे हैं और यह उपासिका कहती है: जा, चोरों को जो ले जाना हो, ले जाने दे; उपदेश में विघ्न मत डाल। जरूर यह कुछ पा रही है, जो हीरे-जवाहरातों और सोना-चांदी से ज्यादा मूल्यवान है। यह तो इतना सीधा गणित है।
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