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________________ संन्यास की मंगल-वेला भिखारी है। दोनों भिखारी हैं। राजा आया और उसने कहाः सूरदासजी! फला-फलां गांव का रास्ता कहां से जाएगा? फिर वजीर आया और उसने कहा : अंधे! फला-फलां गांव का रास्ता कहां से जाता है? अंधे ने दोनों को रास्ता बता दिया। पीछे से सिपाही आया; उसने एक रपट लगायी अंधे को–कि ऐ बुड्डे! रास्ता किधर से जाता है? उसने उसे भी रास्ता बता दिया। जब वे तीनों चले गए, तो उस अंधे ने अपने शिष्य से कहा कि पहला बादशाह था; दूसरा वजीर था; तीसरा सिपाही। वह शिष्य पूछने लगा : लेकिन आप कैसे पहचाने? आप तो अंधे हैं! उसने कहाः अंधे होने से क्या होता है! जिसने कहा सूरदासजी, वह बड़े पद पर होना चाहिए। उसे कोई चिंता नहीं है अपने को दिखाने की। वह प्रतिष्ठित ही है। लेकिन जो उसके पीछे आया, उसने कहा अंधे! अभी उसे कुछ प्रतिष्ठित होना है। और जो उसके पीछे आया, वह तो बिलकुल गया-बीता होना चाहिए। उसने एक धप्प भी मारा। रास्ता पूछ रहा है और एक धप्प भी लगाया! वह बिलकुल गयी-बीती हालत में होना चाहिए। वह सिपाही होगा। __आदमी जब बड़े पदों पर पहुंच जाता है, तब तो वह यह भी मजा ले लेता है कहने का कि पद में क्या रखा है! __ इसलिए बुद्ध कहते हैं : पहले तो ममता न हो। और इसका प्रमाण क्या होगा? जब ये चीजें छूट जाएं, तो शोक न हो। तभी असली बात पता चलेगी। दुख न हो। ममता नहीं थी, तो दुख हो ही नहीं सकता। ममता थी, तो ही दुख हो सकता है। '...वही भिक्षु कहा जाता है।' ब्राह्मण ने सुना। चरणों में झुका और उसने कहा कि मुझे स्वीकार कर लें। मुझे भी इस रास्ते पर ले चलें। ममता में रहकर मैंने देख लिया; दुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं पाया। अब मुझे ममता के पार ले चलें। ममता शब्द प्यारा है; अर्थपूर्ण है। इसका मतलब होता है मैं-भाव। मम+ता, मम यानी मैं, चीजों में बहुत मैं-भाव रखना। यह मेरा मकान। यह मेरी पत्नी। यह मेरी दुकान। यह मेरा धर्म। यह मेरी किताब। यह मेरा मंदिर। यह मेरा देश। यह सब ममता है। जब मैं-भाव चला जाए...। मकान मकान है, मेरा क्या! और देश देश है, मेरा क्या! कुरान कुरान है, मेरा क्या! पत्नी स्त्री है, मेरा क्या! मेरा कुछ भी नहीं है। जब सब मेरे गिर जाते हैं, तो अचानक तुम पाओगेः एक चीज अपने आप गिर जाती है, वह है मैं। मैं को सम्हालने के लिए मेरों के डंडे लगे हुए हैं चारों तरफ से। मैं टिक ही नहीं सकता, बिना मेरे के। इसलिए जितना तुम चीजों को कह सकते हो मेरा, जितनी ज्यादा चीजें तुम्हारे पास हैं कहने को मेरी, उतना तुम्हारा मैं बड़ा होता जाता है। और जब तुम्हारे पास कोई मेरा कहने को नहीं बचता, तो मैं को खड़े रहने की जगह नहीं बचती। मैं 23
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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