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जागो और जीओ
जाते हैं। वे ही रास्ते, भगवान साथ न हों, तो ऊबड़-खाबड़ हो जाते हैं।
दुनिया वही है। भगवान का साथ हो, तो स्वर्ग; भगवान का साथ चूक जाए, तो नर्क। सब वही है; सिर्फ भगवान के साथ से फर्क पड़ता है। तुम अकेले हो; भगवान का साथ नहीं; सब ऊबड़-खाबड़ होगा। जिंदगी एक दुख की कथा होगी। अर्थहीन, विषाद से भरी, रुग्ण। और भगवान का साथ हो, तो सब रूपांतरित हो जाता है जादू की तरह। तुम स्वस्थ हो जाते हो। कहीं कोई कांटे नहीं रह जाते हैं। सब तरफ फूल खिल जाते हैं। कहीं कोई शोरगुल नहीं रह जाता। सब तरफ शांति बरसने लगती है।
उन्हें भरोसा न आया कि हो क्या गया! अभी-अभी हम आए थे; अभी-अभी हम गए; दो घड़ी में इतना सब बदल गया! ये वे ही रास्ते हैं? यह वही जंगल है? ये वे ही वृक्ष हैं? इतना ही नहीं, रेवत का जो निवास स्थान घड़ी दो घड़ी पहले इतना रम्य था कि स्वर्ग मालूम होता था, वह सिर्फ कांटों से भरा था, और एक खंडहर था। और ऐसा लगता था, जैसे सदियों से वहां कोई न रहा हो।
श्रावस्ती लौटने पर महोपासिका विशाखा ने उनसे पूछा : आर्य रेवत का वास स्थान कैसा था?
मत पूछो, उपासिके! सारा कांटों से भरा है और सांप-बिच्छुओं से भी। भूलकर भी भगवान न करे कि ऐसी जगह दुबारा जाना पड़े।
फिर विशाखा ने और भिक्षुओं से भी पूछा। उन्होंने कहा, आर्य रेवत का स्थान स्वर्ग जैसा सुंदर है, मानो ऋद्धि से बनाया गया हो। जैसे हजारों सिद्धों ने अपनी सारी सिद्धि उंडेल दी हो। चमत्कार है वह जगह। ऐसी सुंदर जगह पृथ्वी पर नहीं है। ___ इन विपरीत मंतव्यों को सुनकर स्वभावतः विशाखा चकित हुई। फिर उसने भगवान से पूछा : भंते! आर्य रेवत के स्थान के विषय में पूछने पर आपके साथ गए भिक्षुओं में कोई कहता नर्क जैसा; कोई कहता स्वर्ग जैसा। बात क्या है? असली बात क्या है? आप कहें।
भगवान ने कहा : उपासिके! जब तक वहां रेवत का वास था, वह स्वर्ग जैसा था। जहां रेवत जैसे ब्राह्मण विहरते हैं, वह स्वर्ग हो जाता है। लेकिन उनके हटते ही वह नर्क जैसा हो गया। जैसे दीया हटा लिया जाए और अंधेरा हो जाए-ऐसे ही। मेरा पुत्र रेवत् अर्हत हो गया है, ब्राह्मण हो गया है। उसने ब्रह्म को जान लिया है।
धम्मपद ब्राह्मण की परिभाषा पर पूरा होता है कि ब्राह्मण कौन ! ब्राह्मण क्या! ब्राह्मण अंतिम दशा है-ब्रह्म को जान लेने की।
'इस लोक और परलोक के विषय में जिसकी आशाएं नहीं हैं...।'
जो न तो यहां कुछ चाहता है, न वहां कुछ चाहता है। जो कुछ चाहता ही नहीं, जो अचाह को उपलब्ध हो गया है।
‘ऐसे निराशय और असंग को मैं ब्राह्मण कहता हूं।'
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