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संन्यास की मंगल-वेला
तो धन की आकांक्षा बड़ी प्रगाढ़ है। उसे धन मिला भी नहीं; धन का अनुभव भी नहीं। वह धन के पीछे दौड़ रहा है।
भिक्षु का अर्थ है : जिसकी कोई आकांक्षा नहीं। इतना ही नहीं कि उसने वासनाएं छोड़ी, इंद्रियां छोड़ी, उसने इंद्रियों पर जो मालकियत करने वाला भीतर का अहंकार है, वह भी छोड़ दिया। उसने बाहर का स्वामित्व भी छोड़ दिया; उसने स्वामी को भी छोड़ दिया। वह जो भीतर स्वामी बन सकता है, उसको भी छोड़ दिया।
बुद्ध कहते हैं : तुम भीतर एक शून्यमात्र हो। और जब तुम शून्यमात्र हो, तभी तुम वस्तुतः हो। यह भिक्षु की दशा।
ब्राह्मण ने ठीक ही पूछा। ब्राह्मण है; स्वामी शब्द से परिचित रहा होगा। यह बुद्ध को क्या हुआ कि अपने संन्यासी को भिक्षु कहते हैं!
तो उसने पूछाः हे गौतम! आप अपने शिष्यों को भिक्षु क्यों कहते हैं?
और यह प्रश्न, शायद वह तो सोचता हो कि दार्शनिक है। मगर बुद्ध जानते हैं कि दार्शनिक नहीं है, अस्तित्वगत है। इसीलिए बुद्ध आए हैं। उसके भीतर भिक्षु होने की तरंग उठ रही है। उसको भी पता नहीं है कि यह प्रश्न क्यों पूछ रहा है!
तुमको भी पता नहीं होता कि तुम कोई प्रश्न क्यों पूछते हो। तुम्हारे चित्त में घूमता है; तुम पूछ लेते हो। लेकिन तुम्हें उसकी जड़ों का कुछ पता नहीं होता कि कहां से आता है? क्यों आता है? __ तुम्हें अगर पता चल जाए कि तुमने प्रश्न क्यों पूछा है, तो नब्बे मौकों पर तो प्रश्न हल ही हो जाएगा—इसी के पता चलने में कि मैंने क्यों पूछा है। करीब-करीब हल हो जाएगा। अगर तुम अपने प्रश्न के भीतर उतर जाओ, और अपने प्रश्न की जड़ों को पकड़ लो, तो तुम पाओगेः प्रश्न के प्राण ही निकल गए। उत्तर करीब आ गया। किसी से पूछने की जरूरत नहीं रही।
इस ब्राह्मण को कुछ पता नहीं है कि यह भिक्षु के संबंध में क्यों प्रश्न पूछ रहा है! अगर तुम इससे पूछते कि क्यों ऐसा पूछते हो, तो यह यही कहता कि बहुत बार सोचा मैंने कि सदा संन्यासी को स्वामी कहा गया है, बुद्ध क्यों भिक्षु कहते हैं! बस, जिज्ञासावश पूछ रहा हूं।
लेकिन बुद्ध जानते हैं, यह जिज्ञासा नहीं है। अगर यह जिज्ञासा ही होती, तो बुद्ध आते नहीं। बुद्ध तो तभी आते हैं, जब कुतूहल गया, जिज्ञासा गयी और मुमुक्षा पैदा होती है। जब कोई वस्तुतः उस किनारे आ गया, जहां उसे धक्के की जरूरत है। जहां वह अपने से नहीं कूद सकेगा; क्योंकि आगे विराट शून्य है, और उस विराट शून्य के लिए साहस जुटाना कठिन है।
हे गौतम! आप अपने शिष्यों को भिक्षु क्यों कहते हैं? और फिर कोई भिक्ष कैसे होता है? इसकी अंतःप्रक्रिया क्या है?
यह प्रश्न उसके मन में उठा; उसके चेतन तक आया—भगवान की मौजूदगी
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