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अप्प दीपो भव !
और मेरे मुंह में आपका गुणगान होता रहेगा । मेरा अहोभाव स्वीकार करें।
पूछा है रंजना ने ।
जीवन निश्चित रूपांतरित होता है। बस, इतनी भी अगर तुम्हारी तैयारी हो कि मेरे पास निश्चित मन से बैठ पाओ। सिर्फ पास बैठ पाओ, सिर्फ सत्संग हो जाए, तो भी रूपांतरण होता है।
बुझा दीया जले दीए के करीब आ जाए, तो भी जले दीए से बुझे दीए पर ज्योति कभी भी छलांग ले सकती है।
रूपांतरण किए किए से नहीं हो; कभी-कभी बिना किए हो जाता है । और असली कलाकार वही है, जो बिना किए रूपांतरण कर ले।
लेकिन पास होना बड़ी हिम्मत की बात है। तुम यहां बैठते भी हो, तो भी हजार तरह की दीवालें बनाए रखते हो । सुरक्षा रखते हो । सोच-सोचकर कदम उठाते हो । सोच-सोचकर अगर कदम उठाए, तो चूकोगे। क्योंकि सोच-सोचकर कदम उठाए, तो वे कदम कभी बहुत दूर तक जाने वाले नहीं । तुम्हारी सोच की सीमा के भीतर होंगे ।
मेरे पास दो तरह के लोग संन्यास लेते हैं। एक, जो सोच-सोचकर संन्यास लेते हैं। सोचने की वजह से उनका संन्यास आधा मरा हुआ हो जाता है पहले ही से। जैसे अधमरा बच्चा पैदा हो।
दूसरे वे, जो बिना सोचे संन्यास लेते हैं। जो सिर्फ मेरे प्रेम में पड़कर संन्यास लेते हैं; जो पागल की तरह संन्यास लेते हैं । जो कहते हैं : अब नहीं सोचेंगे। एक नाता तो जीवन में बनाएं, जो बिना सोचे है। इनके संन्यास में एक जीवंतता होती है; एक प्रगाढ़ता होती है। इनके संन्यास में एक ऊर्जा होती है।
रंजना का संन्यास वैसा ही है। बिना सोचे लिया है। हिसाब-किताब नहीं रखा
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स्त्रियां अक्सर बिना हिसाब-किताब के चल पाती हैं। पुरुष बहुत हिसाबी - किताबी है। वह सब तरह के विचार कर लेता है। लाभ-हानि सब सोच लेता है । जब देखता है कि हां, हानि से लाभ ज्यादा है, तो फिर संन्यास लेता है । हानि-लाभ दोनों सोचने के कारण चित्त का एक हिस्सा कहता है, मत लो; एक हिस्सा कहता है, लो। तो जब लेता भी है, तब भी उसका लेना ऐसा ही होता है, जिसको हम पार्लियामेंटरी कहते हैं। जैसे पार्लियामेंट में कोई निर्णय लिया जाता है कि बहुमत एक तरफ हो गया, तो निर्णय हो गया ।
लेकिन बहुमत से लिए गए निर्णय का कोई बहुत भरोसा नहीं है । क्योंकि लोग पार्टी बदलते हैं। आए राम, गए राम । लोग पार्टी बदलते हैं ! तुम्हारे चित्त के हिस्से
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