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________________ संन्यास की मंगल-वेला अलग-अलग पायदानों पर खड़े हैं। यह तो चौंक उठा। इसे तो भरोसा नहीं आया । बुद्ध — और उसके द्वार पर आकर खड़े हैं! पहले कभी नहीं आए थे। जब भी उसे जाना था, वह दान देने जाता था। पांच बार वह दान देता था भिक्षुसंघ को । वह जाता था, दान कर आता था। बुद्ध कभी नहीं आए थे; पहली बार आए हैं। कैसे भरोसा हो ! भरोसा हो तो कैसे भरोसा हो ? अनेक बार सोचा होगा उसने; प्राणों में संजोयी होगी यह आशा कि कभी बुद्ध मेरे घर आएं। सोचा होगा: कभी आमंत्रित करूं । फिर डरा होगा कि मुझ गरीब ब्राह्मण का आमंत्रण स्वीकार होगा कि नहीं होगा ! भय-संकोच में शायद आमंत्रण नहीं दिया होगा। या क्यों कष्ट दूं ! क्यों वहां ले जाऊं ! क्या प्रयोजन है ! जब आना हो, मैं ही आ सकता हूं; उन्हें क्यों भटकाऊं ! ऐसा सोचकर रुक गया होगा । प्रेम के कारण रुक गया होगा । संकोच के कारण रुक गया होगा। बुद्ध आज अचानक, बिना बुलाए, द्वार पर आकर खड़े हो गए हैं। जब जरूरत होती है, तब सदगुरु सदा ही उपलब्ध हो जाता है। सदगुरु को बुलाने की जरूरत नहीं पड़ती। तुम्हारी पात्रता जब भर जाएगी; जब तुम उस जगह के करीब होओगे, जहां उसके हाथ की जरूरत है - वह निश्चित मौजूद हो जाएगा। होना ही चाहिए। ब्राह्मण ने चौंककर देखा। उसे अपनी आंखों पर भरोसा नहीं आया । और उसके मुंह से निकल गया — यह क्या! भगवान ! चकित, आश्चर्यविमुग्ध, आंखें मीड़कर देखी होंगी। सोचा होगा: कोई सपना तो नहीं देख रहा ! सोचा होगा : सदा-सदा सोचता रहा हूं कि भगवान आएं, आएं, आएं ! कहीं उसी सोचने के कारण यह मेरी ही कल्पना तो मेरे सामने खड़ी नहीं हो गयी है ! फिर उसने भगवान के चरण छू वंदना की । अवशेष भोजन देकर यह प्रश्न पूछा : हे गौतम! आप अपने शिष्यों को भिक्षु कहते हैं – क्यों ? उस समय तक दो तरह के संन्यासी उपलब्ध थे भारत में । जैन संन्यासी, मुनि कहलाता है; हिंदू संन्यासी, स्वामी कहलाता है । बुद्ध ने पहली दफे संन्यासी को भिक्षु का नाम दिया। संन्यास को एक नयी भाव-भंगिमा दी और एक नया आयाम दिया। अब उलटी दिखती हैं बातें। हिंदू संन्यासी कहलाता है - स्वामी, मालिक । और बुद्ध ने कहा- भिक्षु, भिखारी ! उलटा कर दिया। जैन मुनि मध्य में है—न मालिक, न भिखारी । मौन है— इसलिए मुनि । इसलिए जैनों से हिंदू उतने नाराज नहीं हैं, जितने बौद्धों से नाराज हुए। बुद्ध ने सारी चीजें उलटी कर दीं। जैनों को क्षमा कर दिया है। इसलिए जैन हिंदुस्तान में बस सके। लेकिन बौद्ध नहीं बस सके। बौद्धों को तो समाप्त कर दिया। बौद्धों को तो उखाड़ दिया। मारा 13
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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