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________________ संन्यास की मंगल-वेला लेना चाहता हूं, लेकिन लूंगा नहीं; क्योंकि आप ही तो कहते हैं : किसी को दुख नहीं देना चाहिए। अब पत्नी को क्या दुख देना ! मैंने उनसे कुछ और बातें कीं, ताकि वे यह संन्यास की बात थोड़ी देर को भूल जाएं। मैंने उनसे पूछा : पत्नी तुम्हारी और किन-किन चीजों के खिलाफ है ? वे बोलेः अरे साहब! हर चीज के खिलाफ है ! सिगरेट पीता हूं, तो खिलाफ । सिनेमा जाऊं, तो खिलाफ। ज्यादा किताबें मैं पढ़ने में लग जाऊं, तो खिलाफ । मैंने पूछा: सिगरेट छोड़ी? उन्होंने कहा कि नहीं छूटती । तो मैंने कहा: पत्नी को दुख दे रहे हो ? और सिगरेट पीए चले जा रहे हो ! और संन्यास छोड़ने को राजी हो, क्योंकि पत्नी को दुख नहीं देना चाहते हो ! और कितने दुख पत्नी को नहीं दिए हैं? और सब दुख देने की तैयारी है। सिर्फ यह संन्यास के संबंध में दुख नहीं देना चाहते! दिखायी पड़ता है न! आदमी तरकीबें निकालता है। आदमी बड़ा कुशल है। और जितनी कुशलता आदमी बुद्धों से बचने में लगाता है, उतनी कुशलता किसी और चीज में नहीं लगाता है। पत्नी घेरकर खड़ी हो गयी है। पीछे जाकर खड़ी हो गयी पति के, ताकि भूल-चूक से भी पति कहीं पीछे न देख ले; द्वार पर खड़ा हुआ गौतम दिखायी न पड़ जाए। उस समय तक लेकिन भगवान की उपस्थिति की अंतःप्रज्ञा होने लगी ब्राह्मण को। वह जो भीतर संकल्प उठा था, उसी को सहारा देने बुद्ध वहां आकर खड़े हुए थे । खयाल रखना ः जिसके पास होते हो, वैसा भाव शीघ्रता से उठ पाता है। जहां होते हो, वहां दबे हुए भाव उठ आते हैं । तुम्हारे भीतर कामवासना पड़ी है और फिर एक वेश्या के घर पहुंच जाओ । या वेश्या तुम्हारे घर आ जाए; तो तत्क्षण तुम पाओगेः कामवासना जग गयी। पड़ी तो थी । वेश्या ऐसी कोई चीज पैदा नहीं कर सकती, जो तुम्हारे भीतर पड़ी न हो। वेश्या क्या करेगी ? बुद्ध के पास पहुंच जाएगी, तो क्या होगा ! लेकिन अगर तुम्हारे पास आ गयी, तो कामवासना, जो दबी पड़ी थी, अवसर देखकर, सुअवसर देखकर, उमगने लगेगी। तलहटी से उठेगी, सतह पर आ जाएगी। यही हुआ । बुद्ध वहां आकर खड़े हो गए। अभी बोले भी नहीं । उनकी मौजूदगी, उनकी उपस्थिति, उनका अंतःनाद, इस व्यक्ति की चेतना को हिलाने लगा। उनकी बीणा इस व्यक्ति के भीतर भी गूंजने लगी। उसकी अंतःप्रज्ञा जागने लगी। उसे अचानक बुद्ध की याद आने लगी। अचानक भोजन करना रुक गया । भोजन करने में रस न रहा । एकदम बुद्ध के भाव में डूबने लगा। और जैसे-जैसे भाव में डूबा, वैसे-वैसे उसे वह अपूर्व सुगंध भी नासापुटों में भरने लगी, जो बुद्ध को सदा घेरे रहती थी। और चौंका; और गहरा डूब गया उस सुगंध में। और जैसे ही सुगंध में और 11
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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