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एस धम्मो सनंतनो
मगर ये सब संयोजन हैं।
'जो सारे संयोजनों को काटकर भयरहित हो जाता है...।'
संयोजन करें, तभी कोई भयरहित होता है। नहीं तो मेरी पत्नी है, कहीं चली न जाए; मेरा पति है, कहीं छोड़ न दे; मेरा बेटा है, कहीं बिगड़ न जाए - तो हजार चिंताएं और हजार भय उठते हैं। मेरा शरीर है, कहीं मौत न आ जाए; कहीं मैं बूढ़ा न हो जाऊं !
यहां कुछ भी मेरा नहीं है। जिसने सारे मेरे के संबंध तोड़ दिए, जिसने जाना कि यहां मेरा कुछ भी नहीं है, उसे एक और बात पता चलती है कि मैं नहीं हूं। मैं मेरे का जोड़ है। हजार मेरे को जुड़कर मैं बनता है। जैसे छोटे-छोटे धागों को बुनते जाओ, बुनते जाओ, मोटी रस्सी बन जाती है। ऐसे मेरे के धागे जोड़ते जाओ, जोड़ते जाओ, उन्हीं धागों से मैं की मोटी रस्सी बन जाती है।
सब संयोजनों को जो छोड़ देता है, उसका पहले मेरे का भाव छूट जाता है, ममत्व | और एक दिन अचानक पाता है कि मैं तो अपने आप मर गया ! एक-एक धागा निकालते गए रस्सी से । रस्सी दुबली-पतली होती चली गयी। -
निकालते-निकालते एक दिन जब आखिरी धागा निकल जाएगा, रस्सी नहीं बचेगी। फिर कोई भय नहीं है। मरने के पहले मर ही गए ! फिर भय क्या? मैं हूं ही नहीं - इस भाव -अवस्था को बुद्ध ने अनत्ता कहा है। यह जान लेना कि मैं नहीं हूं, शून्य है—यही निर्वाण है।
बुद्ध कहते हैं : ऐसे निर्वाण को जो उपलब्ध हुआ-संग, आसक्ति से मुक्त, भयरहित — उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।
ब्राह्मण की जैसी प्यारी परिभाषा बुद्ध ने की है, वैसी किसी ने भी नहीं की है। ब्राह्मणों ने भी नहीं की है ! ब्राह्मणों के शास्त्रों में भी ब्राह्मण की ऐसी अदभुत परिभाषा नहीं है। वहां तो बड़ी क्षुद्र परिभाषा है— कि जो ब्राह्मण के घर में पैदा हुआ !
ब्राह्मण के घर में पैदा होने से क्या होगा? इतना आसान नहीं है ब्राह्मण होना ! ब्राह्मण होना बड़ी गहन उपलब्धि है। महान उपलब्धि है । निखार से होती है। जिंदगी को संवारने से होती है; स्वच्छ, शुद्ध करने से होती है। जिंदगी को आग में डालने से होती है; तपश्चर्या से होती है; साधना से होती है । ब्राह्मणत्व सिद्धि है; ऐसे जन्म में मुफ्त नहीं मिलती है।
दूसरा दृश्यः
राजगृह में धनंजाति नाम की एक ब्राह्मणी स्रोतापत्ति-फल प्राप्त करने के समय से, किसी भी बहाने हो, सदा नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासंबुद्धस्स कहती रहती थी।
यह बुद्ध की प्रार्थना है। यह बुद्ध की अर्चना है। यह बुद्ध की उपासना का भाव
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