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________________ ब्राह्मणत्व के शिखर-बुद्ध एक यहूदी फकीर ने देश के सबसे बड़े धर्मगुरु को अपनी लिखी किताब भेजी। जिस शिष्य के हाथ भेजी, उसने कहाः आप गलत कर रहे हैं। न भेजें, तो अच्छा। क्योंकि वे आपके विरोध में हैं। वे आपको शत्रु मानते हैं। यह फकीर पहुंचा हुआ व्यक्ति था। लेकिन स्वभावतः धर्मगुरु इसको दुश्मन माने, यह स्वाभाविक है। क्योंकि जब भी कोई पहुंचा हुआ फकीर होगा, तथाकथित धर्म, तथाकथित धर्मगुरु, तथाकथित पुरोहित-पंडे, स्थिति-स्थापक-सब उसके विरोध में हो जाएंगे। वह सबसे बड़ा धर्मगुरु था और उसके मन में बड़ा क्रोध था इस आदमी के प्रति, क्योंकि यह आदमी पहुंच गया था। यही अड़चन थी। यही जलन थी। लेकिन फकीर ने कहा अपने शिष्य कोः तू जा। तू सिर्फ देखना; ठीक-ठीक देखना कि क्या वहां होता है और ठीक-ठीक मुझे आकर बता देना। वह किताब लेकर गया। फकीर का शिष्य जब पहुंचा धर्मगुरु के बगीचे में, धर्मगुरु अपनी पत्नी के साथ बैठा बगीचे में गपशप कर रहा था। इसने किताब उसके हाथ में दी। उसने किताब पर नाम देखा, उसी वक्त किताब को फेंक दिया। और कहा कि तुमने मेरे हाथ अपवित्र कर दिए; मुझे स्नान करना होगा। निकल जाओ बाहर यहां से! . शिष्य तो जानता था—यह होगा। तभी पत्नी बोली : इतने कठोर होने की भी क्या जरूरत है! तुम्हारे पास इतनी किताबें हैं तुम्हारे पुस्तकालय में, इसको भी रख देते किसी कोने में। न पढ़ना था, न पढ़ते। लेकिन इतना कठोर होने की क्या जरूरत है! और फिर अगर फेंकना ही था, तो इस आदमी को चले जाने देते, फिर फेंक देते। इसी के सामने इतना अशिष्ट व्यवहार करने की क्या जरूरत है! शिष्य ने यह सब सुना; अपने गुरु को आकर कहा। कहा कि पत्नी बड़ी भली है। उसने कहा किताब को पुस्तकालय में रख देते। हजारों पुस्तकें हैं; यह भी पड़ी रहती। उसने कहा कि अगर फेंकना ही था, तो जब यह आदमी चला जाता, तब फेंक देते। इसी के सामने यह दुर्व्यवहार करने की क्या जरूरत थी! लेकिन धर्मगुरु बड़ा दुष्ट आदमी है। उसने किताब को ऐसे फेंका, जैसे जहर हो; जैसे मैंने सांप-बिच्छू उसके हाथ में दे दिया हो। ___ तुम्हें पता है, उस यहूदी फकीर ने क्या कहा! उसने अपने शिष्य को कहा : तुझे कुछ पता नहीं है। धर्मगुरु आज नहीं कल मेरे पक्ष में हो सकता है। लेकिन उसकी पत्नी कभी नहीं होगी। यह बड़ी मनोवैज्ञानिक दृष्टि है। __ पत्नी व्यावहारिक है-न प्रेम, न घृणा। एक तरह की उपेक्षा है—कि ठीक, पड़ी रहती किताब। या फेंकना था, बाद में फेंक देते। उपेक्षा है। न पक्ष है, न विपक्ष 223
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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