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________________ एस धम्मो सनंतनो वह न हो, उस दिन परम स्वभाव के द्वार खुलते हैं। दो तरह की स्थितियां हैं। एकः जिसको प्राकृतिक कहें। किसी को चोट की। लौटकर देखेगा। नाराज होगा। और किसी को चोट की, और लौटकर भी न देखा; नाराज भी न हुआ - जैसा था, वैसा रहा; जरा भी कंपन न आया; लहर न उठी। यह दूसरी प्रकृति में प्रवेश हो गया । एक प्रकृति है देह की; एक प्रकृति है आत्मा की । देह की प्रकृति में पहली बात घटेगी। आत्मा की प्रकृति में जो उतरने लगा, उसे दूसरी बात घटेगी। तो प्रसन्न भी हुए। अब यह बात उलटी हो गयी। और यहीं से बुद्धत्व की शुरुआत है। दुख तो नहीं हुए। नाराज तो नहीं हुए। बड़े राजी हुए। बड़े प्रसन्न हुए। कि यह तो अदभुत हुआ । मन नहीं डोला था । और ध्यान की ज्योति और भी थिर हो उठी थी। जितनी बड़ी चुनौती हो, उतनी ध्यान की ज्योति थिर होती है। चूके, तो बुरी तरह गिरोगे । नहीं चूके, तो अदभुत रूप से सम्हल जाओगे। दोनों संभावनाएं हैं। पहाड़ से गिरे, तो गए। और पहाड़ पर थोड़े और सम्हले, तो शिखर तुम्हारा हुआ; कि तुम शिखर हुए। उनके भीतर इस भांति लात मारने वाले के लिए आभार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था । वे भीतर ही भीतर कह रहे होंगे : धन्य है ब्राह्मण ! तूने भला किया। तूने एक अवसर दिया। मुझे पता ही नहीं था कि ज्योति इतनी भी थिर हो सकती है ! तूने चुनौती दी। तू हवा का झोंका क्या लाया, मेरी परीक्षा ले ली। मैं तेरा अनुगृहीत हूं। इस घटना ने अंधे ब्राह्मण को तो जैसे आंखें दे दीं। यह लौटकर न देखना; यह उसी मस्ती से चलते जाना, जैसे चल रहे थे; जैसे कुछ हुआ ही नहीं। लात तो पीछे से मारी थी । दौड़कर आगे आया और चरणों में गिर पड़ा। खयाल रखनाः निंदा पीछे से की जाती है। केवल प्रशंसा करते समय ही तुम सामने खड़े हो सकते हो । लात पीछे से मारी जा सकती है; लेकिन चरण पीछे से नहीं छुए जाते; कभी नहीं छुए जाते। चरण सामने से छूने होते हैं। जो झुक सकता है, वही ऐसे पुरुषों के सामने आ सकता है – सारिपुत्र जैसे पुरुषों के। और यह बड़ी अदभुत बात लगती है कि यह आदमी — ऐसा मिथ्या-दृष्टि, ऐसा क्रोधी; ऐसा दुष्ट प्रकृति का, अकारण लात मारी — यह इतने जल्दी बदल गया! अक्सर ऐसा होता है। जो जितना कठोर हो सकता है, वह उतना ही कोमल भी हो सकता है। जो जितना विरोध में हो सकता है, उतना ही पक्ष में भी हो सकता है। जो जितनी घृणा से भरा होता है, वह उतने ही प्रेम से भी भर सकता है। बदलाहट केवल उनके ही जीवन में नहीं होती, जो कुनकुने जीते हैं। 222
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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