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________________ ब्राह्मणत्व के शिखर-बुद्ध लात का झोंका दीए को बुझा न दे। कहीं दीए की लौ कंप न जाए। जिसको इस भीतर के दीए की लौ को सम्हालने का मजा आ गया है, जो इसमें रसलीन हो गया है, उसे फिर सारी दुनिया की बातें व्यर्थ हैं। फिर वह फिकर नहीं करता कि कोई लात मार गया। उसकी फिकर कुछ और है। वह भीतर की संपदा को सम्हालता है कि कहीं इस लात मारने से उद्विग्न न हो जाऊं। कहीं क्रोध न आ जाए। कहीं उत्तेजना में कुछ कर न बैलूं। क्योंकि कुछ भी कर लोगे उत्तेजना में-दीए से हाथ छूट जाएगा। दीया चूक जाएगा। और जिसको वर्षों में सम्हाला है, वह क्षण में खोया जा सकता है। __जब आदमी पहाड़ की ऊंचाइयों पर चढ़ता है, तो जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ने लगती है, वैसे-वैसे सम्हलने लगता है, क्योंकि अब गिरने में बहुत खतरा है। ध्यान रखना, सपाट जमीन पर चलने वाला आदमी गिर सकता है; कोई बड़ी अड़चन नहीं है। खरोंच-वरोंच लगेगी थोड़ी। मलहम-पट्टी कर लेगा। ठीक हो जाएगी। लेकिन जैसे-जैसे पहाड़ की ऊंचाई पर पहुंचने लगता है...। ____ अब तुम गौरीशंकर के शिखर पर इस तरह नहीं चल सकते, जैसे तुम पूना की सड़क पर चलते हो। तुम्हें एक-एक श्वास सम्हालकर लेनी पड़ेगी। और एक-एक पैर जमाकर चलना होगा। क्योंकि वहां से गिरे, तो गए। वहां से गिरे, तो फिर सदा को गएं। खरोंच नहीं लगेगी; सब समाप्त ही हो जाएगा। ऐसी ही अंतरदशा ध्यान में भी आती है। ध्यान के शिखरों पर जब तुम चलने लगते हो, तब बहुत सम्हलकर चलना होता है। सारिपुत्र उन ध्यान के शिखरों पर है, जहां से गिरा हुआ आदमी बुरी तरह भटक जाता है जन्मों-जन्मों के लिए। अब कोई लात मार गया; इसमें कुछ मूल्य ही नहीं है। इसका कोई अर्थ ही नहीं है। ऐसी घड़ी में उद्विग्न नहीं हुआ जा सकता। तुम जल्दी से उद्विग्न हो जाते हो, क्योंकि तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है। याद रखना, तुम इसीलिए उद्विग्न हो जाते हो। तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है। उद्विग्न होने में तुम्हारा कुछ हर्जा नहीं है। खरोंच लगेगी थोड़ी-बहुत। ठीक है। लेकिन सारिपुत्र के लिए महंगा सौदा है। खरोंच ही नहीं लगेगी; सब खो जाएगा। जन्मों-जन्मों की संपदा खो जाएगी। हाथ आते-आते खजाना खो जाएगा। वे ध्यान में जागे, ध्यान के दीए को सम्हाले चल रहे थे, सो वैसे ही चलते रहे। उलटे मन ही मन वे प्रसन्न भी हुए, क्योंकि साधारणतः ऐसी स्थिति में मन डांवाडोल हो उठे, यह स्वाभाविक है। और देखा कि मन डांवाडोल नहीं हुआ है। लात लगी-और नहीं लगी। चोट पड़ी-और चोट नहीं हुई। हवा का झोंका आया और गुजर गया। अकंप थी ज्योति, अकंप ही रही। प्रमुदित हो गए होंगे; प्रफुल्लित हो गए होंगे। हृदय-कमल खुल गया होगा। कहा होगाः अहोभाग्य! स्वाभाविक था—वह नहीं हुआ। जिस दिन स्वाभाविक जिसको हम कहते हैं, 221
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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