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________________ एस धम्मो सनंतनो निष्प्रयोजन! बुद्ध ने कहा है अपने शिष्यों को कि जिसमें प्रयोजन न हो, उसमें जरा भी ऊर्जा मत डालना। अब कोई आदमी पीछे से लात मार रहा है, तो इसमें प्रयोजन क्या है ! पीछे देखने से सार क्या है ? इसमें उलझने की जरूरत क्या है ? यह पागल होगा; कि मूढ़ होगा; कि मिथ्या-दृष्टि होगा। इसमें इतना भी रस लेने की जरूरत नहीं है कि पीछे लौटकर देखो। क्योंकि गलत को देखना भी अनावश्यक है। व्यर्थ को देखना भी उचित नहीं है। क्योंकि जिसे हम देखते हैं, उसकी छाप हमारी आंख पर पड़ती है। तो बुद्ध ने कहा है कि व्यर्थ को देखना ही मत । व्यर्थ को सुनना ही मत । व्यर्थ का विचार ही मत करना। क्योंकि जितनी देर तुम व्यर्थ को देखने में लगाओगे, जितना समय और जितनी शक्ति व्यर्थ पर व्यय करोगे, उतनी ही सार्थक की तरफ जाने में रुकावट पड़ जाएगी । तो बुद्ध ने कहा है कि जब जाना है एक यात्रा पर, और एक मंजिल पर, तो सारी ऊर्जा उसी तरफ बहे। यहां-वहां छांटना मत; बांटना मत। तो सारिपुत्र ने पीछे लौटकर भी नहीं देखा । लात तो लगी । लात तो जैसी तुम्हें लगती है, उससे ज्यादा लगेगी सारिपुत्र को । क्योंकि जितना संवेदनशील व्यक्ति होगा, जितना जागरूक व्यक्ति होगा, उतना ही उसका बोध भी प्रगाढ़ होता है। शराबी को लात मार दो, तो शायद लगे भी नहीं। पता भी न चले। दूसरे दिन तुम पूछो कि भई, रात तुम जा रहे थे रास्ते पर और हमने लात मारी थी। वह कहेगा: हमें पता नहीं। कैसी रात ! कैसे तुम ! कैसे हम ! रात का कहां किसको पता है ! जरा ज्यादा पी गए थे। शराबी को पता ही नहीं चलता, क्योंकि शराबी मूच्छित है। तुम घर भागे आ रहे हो । किसी ने कह दिया है कि तुम्हारे घर में आग लग गयी है! और तुम भागे हो बाजार से दुकान बंद करके बेतहाशा । और किसी ने तुम्हें पीछे से आकर मार दी। तुम्हें शायद पता भी न चले। क्योंकि तुम्हारा मन तो सारा का सारा तुमसे पहले भाग गया है। वह वहां पहुंच गया है, जहां मकान में आग लगी है । वह तो लपटों को देख रहा है। तुम वहां हो ही नहीं । तुम करीब-करीब मूच्छित हो। वहां तो शरीर ही है मात्र; तुम्हारी आत्मा तो पंख पसारकर उड़ गयी है । तुम्हें याद भी न रहे; पता भी न चले। लेकिन सारिपुत्र जैसे सम्यकरूप से जाग्रत व्यक्ति को कोई लात मारे, तो पूरा-पूरा पता चलेगा। रत्तीभर नहीं चूकेगा। लेकिन सारिपुत्र ने पीछे लौटकर नहीं देखा। बुद्ध की अनुशासना यही थी कि व्यर्थ को मत देखना। वे ध्यान में जागे, ध्यान के दीए को सम्हाले चल रहे थे। और बुद्ध ने कहा है कि सदा ऐसे चलो, जैसे तुम्हारे हाथ में एक दीया है, जो जरा भी कंपे तो बुझ जाएगा । जिस पर हजार हवाओं के हमले हो रहे हैं। यह लात भी हवा का एक झोंका है। दीए को उन्होंने और सम्हाल लिया होगा कि कहीं यह 220
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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