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________________ ब्राह्मणत्व के शिखर-बुद्ध सहज भाव हो, अगर जल्दी ही वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। श्रावस्ती के भोले-भाले लोग, सीधे-सादे लोग सारिपुत्र के गुणों की प्रशंसा कर रहे थे। ऐसे गुण थे ही सारिपुत्र में जिनकी प्रशंसा की जाए। यही देखते होः विवाद करने आया हो और बिना एक प्रश्न उठाए झुक जाए और शिष्यत्व स्वीकार कर ले! बड़े पांडित्य के बोझ से दबा हो, शास्त्रों का ज्ञाता हो, और शास्त्रों को ऐसे हटा दे, जैसे कोई दर्पण से धूल को हटा देता है! इतनी सुगमता से, इतनी सरलता से, बिना दंभ के, बिना अहंकार के, बिना अकड़ के। न केवल खुद झुका, बल्कि अपने पांच सौ शिष्यों को भी झुका दिया। सारिपुत्र ने बुद्ध से कभी कोई प्रश्न ही नहीं पूछा फिर। आया था उत्तर देने; प्रश्न ही नहीं पूछा। उनकी छाया हो गया। उनमें लीन हो गया। गुण खूब थे सारिपुत्र में; गुणी था। गांव के लोग ठीक ही प्रशंसा करते थे। लेकिन एक बुद्ध-विरोधी ब्राह्मण भी यह सुन रहा था और ईर्ष्या और क्रोध से जला जा रहा था। तभी भीड़ में से किसी ने कहाः हमारे आर्य ऐसे सहनशील हैं कि आक्रोशन करने वालों या मारने वालों पर भी क्रोध नहीं करते हैं। यह बात मिथ्या-दृष्टि ब्राह्मण की आग में घी का काम कर गयी। मिथ्या-दृष्टि का अर्थ होता है जिसे उलटा देखने की आदत पड़ गयी है। उलटी खोपड़ी। सीधी बात को भी जो उलटा करके देखेगा। जो सीधा देख ही नहीं सकता। जिसकी दृष्टि में बड़ी गहरी भ्रांति बैठ गयी है। सारिपुत्र की प्रशंसा हो रही है; उसे प्रशंसा से आग लग रही है। ऐसे बहुत लोग हैं, जो किसी की भी प्रशंसा नहीं सुन सकते। जो केवल निंदा सुन सकते हैं। इसीलिए तो लोग ज्यादातर निंदा करते हैं। क्योंकि निंदा ही सुनने वाले लोग हैं। जहां दो-चार आदमी मिले कि निंदा शुरू हो जाती है! - प्रशंसा करना भी अपने आप में एक गुणवत्ता है। क्योंकि प्रशंसा वही कर सकता है, जिसके पास सम्यक दृष्टि हो। प्रशंसा के लिए सबसे बड़ा गुण जरूरी है कि जो अपने को हटाकर दूसरे को देख सके। जो दूसरे के बड़प्पन में पीड़ित न हो जाए; जिसके अहंकार को चोट न लगे; जो दूसरे की भव्य प्रतिमा को देखकर क्रोध से न भर जाए कि यह कौन है, जो मुझसे ज्यादा भव्य है? यह कौन है, जो मुझसे ज्यादा दिव्य है? यह कौन है, जो मुझसे ज्यादा श्रेष्ठ है? मुझसे ज्यादा श्रेष्ठ कोई भी नहीं हो सकता-ऐसी पीड़ा जिसे पैदा हो जाती है, वह मिथ्या-दृष्टि है। मिथ्या-दृष्टि किसी की प्रशंसा बर्दाश्त नहीं कर सकता, क्योंकि वह किसी की प्रशंसा को अपनी निंदा मानता है। दूसरा बड़ा है, तो मैं छोटा हो गया-यह उसका तर्क है। दूसरा सुंदर है, तो मैं कुरूप हो गया—यह उसका तर्क है। दूसरा चरित्रवान 213
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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