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________________ ब्राह्मणत्व के शिखर-बुद्ध क्रोध से जला जा रहा था। तभी भीड़ में से किसी ने कहा : हमारे आर्य ऐसे सहनशील हैं कि आक्रोशन करने वालों या मारने वालों पर भी क्रोध नहीं करते हैं। यह बात मिथ्या-दृष्टि ब्राह्मण की आग में घी का काम कर गयी। वह बोलाः उन्हें कोई क्रोधित करना जानता ही न होगा। देखो, मैं क्रोधित करता हूं। नगरवासी हंसे और उन्होंने कहाः यदि तुम उन्हें क्रोधित कर सकते हो, तो करो। वह ब्राह्मण दोपहर में सारिपुत्र को भिक्षाटन करते देख, पीछे से जाकर लात से पीठ पर मारा। लेकिन स्थविर ने पीछे लौटकर देखा भी नहीं। वे ध्यान में जागे, ध्यान के दीए को सम्हाले चल रहे थे, सो वैसे ही चलते रहे। उलटे, मन ही मन वे प्रसन्न भी हुए, क्योंकि साधारणतः ऐसी स्थिति में मन डांवाडोल हो उठे, यह स्वाभाविक ही है। लेकिन मन नहीं डोला था और ध्यान की ज्योति और भी थिर हो उठी थी। उनके भीतर इस भांति लात मारने वाले के प्रति आभार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। इस घटना ने अंधे ब्राह्मण को तो जैसे आंखें दे दीं। वह सारिपुत्र के चरणों में गिर पड़ा। और उन्हें घर ले जाकर भोजन कराया। उसकी आंखें पश्चात्ताप के आंसुओं से भरी थीं और वे आंसू उसके सारे कल्मष को बहाकर उसकी आत्मा को निर्मल कर रहे थे। इस तरह सारिपुत्र के निमित्त उस पर पहली बार बुद्ध की किरण पड़ी थी। लेकिन भिक्षुओं को सारिपुत्र का व्यवहार नहीं जंचा। उन्होंने भगवान से कहाः आयुष्मान सारिपुत्र ने अच्छा नहीं किया, जो कि मारने वाले ब्राह्मण के घर जाकर भोजन भी किया। अब किसे वह बिना मारे छोड़ेगा! वह तो भिक्षुओं को मारने की आदत बना लेगा। अब तो वह भिक्षुओं को मारता हुआ ही विचरण करेगा। शास्ता ने भिक्षुओं से कहा भिक्षुओ! ब्राह्मण को मारने वाला ब्राह्मण नहीं है। गृहस्थ-ब्राह्मण द्वारा श्रमण-ब्राह्मण मारा गया होगा। और सारिपुत्र ने वही किया है, जो कि ब्राह्मण के योग्य है। फिर तुम्हें पता भी नहीं है कि सारिपुत्र के ध्यानपूर्ण व्यवहार ने एक अंधे आदमी को आंखें प्रदान कर दी हैं। और तभी उन्होंने ये गाथाएं कहीं : न ब्राह्मणस्सेतदकिञ्चि सेय्यो यदा निसेधो मनसो पियेहि। यतो यतो हिंसमनो निवत्तति ततो ततो सम्मति एव दुक्खं ।। 'ब्राह्मण के लिए यह कम श्रेयस्कर नहीं है कि वह प्रिय पदार्थों से मन को हटा लेता है। जहां-जहां मन हिंसा से निवृत्त होता है, वहां-वहां दुख शांत हो जाता है।' न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो। 211
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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