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एस धम्मो सनंतनो
अक्कोसं बधबन्धञ्च अदुट्ठो यो तितिक्खति। खन्तिबलं बलानीकं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।३२३।।
रूह देखी है कभी, रूह को महसूस किया है?
जागते जीते हुए दूधिया कोहरे से लिपटकर सांस लेते हुए इस कोहरे को महसूस किया है? या शिकारे में किसी झील पे जब रात बसर हो
और पानी के छपाकों में बजा करती हों टलियां सुबकियां लेती हवाओं के वह बैन सुने हैं? चौदहवीं रात के बरफाब-से इस चांद को जब ढेर-से साए जब पकड़ने के लिए भागते हैं तुमने साहिल पे खड़े गिरजे की दीवार से लगकर अपनी गहनाई हुई कोख को महसूस किया है? जिस्म सौ बार जले फिर भी वही मिट्टी का ढेला रूह इक बार जलेगी तो वह कुंदन होगी
रूह देखी है कभी, रूह को महसूस किया है? जो रूह को महसूस कर ले, वही ब्राह्मण है। जो इस अस्तित्व की अंतरात्मा को पहचान ले, वही ब्राह्मण है। जो पदार्थ में परमात्मा को देख ले, वही ब्राह्मण है। जिसके लिए स्थूल और सूक्ष्म एक हो जाएं, वही ब्राह्मण है। बाहर और भीतर जिसके भेद न रहे, वही ब्राह्मण है।
बुद्ध ने बहुत-बहुत सूत्रों में ब्राह्मण की परिभाषा की है। ब्राह्मण शब्द परम दशा का सूचक है। इसकी सूक्ष्म व्याख्या होनी जरूरी है। इसकी गलत व्याख्या होती रही है। मनु की व्याख्या गलत है—कि जन्म से कोई ब्राह्मण होता है। महावीर की व्याख्या थोड़ी ऊपर जाती है मनु से—कि कर्म से कोई ब्राह्मण होता है। बुद्ध की व्याख्या और भी ऊपर जाती है-आत्म-अनुभव से। न जन्म से, न ऊपर के आचरण से, बल्कि भीतर जो छिपा है, उसके साक्षात्कार से कोई ब्राह्मण होता है। बुद्ध ही केवल ब्राह्मण होता है। जो जाग गया अपने में, वही ब्राह्मण होता है।
बुद्ध की भाषा में ब्राह्मण और बुद्ध पर्यायवाची हैं। इसके पहले कि हम सूत्रों में चलें, सूत्रों की परिस्थिति समझें। पहला दृश्यः
श्रावस्ती नगरवासी बहुत से मनुष्य एकत्र होकर सारिपुत्र स्थविर के अनेक गुणों की प्रशंसा कर रहे थे। एक बुद्ध-विरोधी ब्राह्मण भी यह सुन रहा था और ईर्ष्या और
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