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एस धम्मो सनंतनो
तुम्हारे मन में शिष्य होने का भाव भी उठा-अच्छा है।
द्रोण मैं नहीं हूं। और तुमसे मैं चाहूंगा कि तुम अगर एकलव्य होना चाहो, तो उस पुराने एकलव्य की सारी हालात समझकर होना। क्योंकि नए एकलव्य बड़ी उलटी बातें कर रहे हैं! मैंने सुना है :
कलियुग के शिष्यों ने गुरुभक्ति को ऐसा मोड़ दिया, कि नकल करते हुए एकलव्य ने, द्रोणाचार्य का ही
अंगूठा तोड़ दिया! तुम आधुनिक एकलव्य नहीं बनना। जमाना बदल गया है। अब शिष्य, द्रोणाचार्य का अंगूठा तोड़ देते हैं!
न मैं द्रोण हूं, न तुम्हें एकलव्य-कम से कम आधुनिक एकलव्य-बनने की कोई जरूरत है। और चूंकि मैं द्रोण नहीं हूं, इसलिए तुम्हें इनकार नहीं करूंगा। और तुम्हें जंगल में कोई मूर्ति बनाकर धनुर्विद्या नहीं सीखनी होगी। मैं ही तुम्हें सिखाऊंगा।
और जो मेरे पास है, वह बांटने से घटता नहीं। इसलिए क्या कंजूसी करनी! कि इसको बनाएंगे शिष्य; उसको नहीं बनाएंगे! क्या शर्ते लगानी! नदी के तट पर तुम जाते हो, तो नदी नहीं कहती कि तुम्हें नहीं पानी पीने दूंगी। जो आए, पीए। नदी राह देखती है कि कोई आए, पीए। ___फूल जब खिलता है, तब यह नहीं कहता कि तुम्हारी तरफ न बहूंगा। तुम्हारी तरफ गंध को न बहने दूंगा। शूद्र! तू दूर हट मार्ग से! मैं तो सिर्फ ब्राह्मणों के लिए हूं। जब फूल खिलता है, तो सुगंध सबके लिए है। और जब सूरज निकलता है, तो सूरज यह भी नहीं कहता कि पापियों पर नहीं गिरूंगा; पुण्यात्माओं के घर पर बरसुंगा। पुण्यात्माओं के घर और पापियों के घर में सूरज को कोई भेद नहीं है।
और जब मेघ घिरते हैं और वर्षा होती है, तो महात्माओं के खेतों में ही नहीं होती; सभी के खेतों में हो जाती है।
तुम मुझे एक मेघ समझो। तुम अगर लेने को तैयार हो, तो तुम्हें कोई नहीं रोक सकता। और यह कुछ संपदा ऐसी है कि देने से घटती नहीं, बढ़ती है। जितना तुम लोगे, उतना शुभ है। नए स्रोत खुलेंगे। नए द्वार से और ऊर्जा बहेगी। लो! लूटो!
आदि है अशेष और दूर अभी अंत फागुनी वितान तले तैरता वसंत। तरु-तरु के कंधों पर कोंपलें खड़ी हुयीं
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