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________________ समग्र संस्कृति का सृजन गया, तो फिर कभी वह धनुर्विद नहीं हो सकेगा। उसकी धनुर्विद्या को नष्ट करने के लिए अंगूठा मांग लिया। उसने अंगूठा दे भी दिया। यह अपूर्व व्यक्ति था। यह क्षत्रिय था, जब आया था। शूद्र इसको मैं नहीं कह सकता। यह क्षत्रिय था, जब यह आया था गुरु के पास। अंगूठा देकर ब्राह्मण हो गया। समर्पण अपूर्व है! जानता है कि यह अंगूठा गया कि मैंने जो वर्षों मेहनत करके धनुर्विद्या सीखी है, उस पर पानी फिर गया। लेकिन यह सवाल ही कहां है? यह सवाल ही नहीं उठा उसे। एक दफा भी संदेह नहीं उठा मन में कि यह तो बात जरा चालबाजी की हो गयी! तो मैं द्रोण नहीं हूं, तुमसे कह दूं। तुम पूछते हो ः 'क्या मैं शूद्र होकर भी आपका शिष्य हो सकता हूं?' शूद्र सभी हैं। शूद्र की तरह ही सभी पैदा होते हैं। और जिस शूद्र में शिष्य बनने की कल्पना उठने लगी, वह बाहर निकलने लगा शूद्रता से। उसकी यात्रा शुरू हो गयी। इस भाव के साथ ही क्रांति की शुरुआत है। चिनगारी पड़ी। तुम शिष्य बनना चाहो और मैं तुम्हें अस्वीकार करूं, यह असंभव है। मैं तो कभी-कभी उनको भी स्वीकार कर लेता हूं, जो शिष्य नहीं बनना चाहते। ऐसे ही भूल-चूक से कह देते हैं कि शिष्य बनना है। उनको भी स्वीकार कर लेता हूं। द्रोण ने एकलव्य को अस्वीकार किया। मैं उनको भी स्वीकार कर लेता हूं, जिनमें एकलव्य से ठीक विपरीत दशा है; जो हजार संदेहों से भरे हैं; हजार रोगों से भरे हैं; हजार शिकायतों से भरे हैं; जिन ने कभी प्रार्थना का कोई स्वर नहीं सुना और श्रद्धा का जिनके भीतर कोई अंकुर नहीं फूटा है कभी। जो जानते नहीं कि श्रद्धा शब्द का अर्थ क्या होता है। नास्तिकों को भी मैं स्वीकार कर लेता हूं। मैं इसलिए स्वीकार कर लेता हूं, कि जो किसी भी कारण से सही, शिष्य बनने को उत्सुक हआ है, चलो, एक खिड़की खुली। फिर बाकी द्वार-दरवाजे भी खोल लेंगे। एक रंध्र मिली। जरा सा भी छिद्र मुझे तुममें मिल जाए, तो मैं वहीं से प्रविष्ट हो जाऊंगा। जरा सा रंध्र मिल जाए, तो सूरज की किरण यह थोड़े ही कहेगी कि दरवाजे खोलो, तब मैं भीतर आऊंगी। जरा खपड़ों में जगह खाली रह जाती है, सूरज की किरण वहीं से प्रवेश कर जाती है। तुम्हारी खोपड़ी के खपड़ों में कहीं जरा सी भी संध मिल गयी, तो मैं वहीं से आने को तैयार हूं। मैं तुमसे सामने के दरवाजे खोलने को नहीं कहता। मैं तुमसे बैंड-बाजे बजाने को भी नहीं कहता। तुम बड़ी उदघोषणा करो, इसकी भी चिंता नहीं करता। तुम किसी भी क्षण में, किसी ब्राह्मण-क्षण में...। अब यह प्रश्न किसी ब्राह्मण-क्षण में उठा होगा। शूद्र को तो यह उठता ही नहीं। शूद्र तो यहां आता ही कैसे? शूद्र तो मेरे खिलाफ है। तुम यहां आ गए, यह किसी ब्रह्म-मुहूर्त, किसी ब्राह्मण-क्षण में हुआ होगा। 185
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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