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समग्र संस्कृति का सृजन नव पल्लव वेश, खिले लतियों के चेहरे नीले-पीले-लाल-श्वेत सुमन गहनों में वन देवी गांव-गांव गाती है सेहरे। सहमी-सी शकुन, आ पहुंचा दुष्यंत फागुनी वितान तले तैरता वसंत। रूप की दुपहरी में, वसुधा संवर रही कसी हुई देह किंतु वसन तनिक ढीले पनघट पर यौवन के आमंत्रित सब ही छलका सौंदर्य-कलश, जो चाहे पी ले। साक्षी आकाश और दर्शक दिगंत फागुनी वितान तले तैरता वसंत। पनघट पर यौवन के आमंत्रित सब ही
छलका सौंदर्य-कलश, जो चाहे पी ले। तुम यह पूछो ही मत कि तुम कौन हो, क्या हो। मैं भी नहीं पूछता। तुम्हारे भीतर प्यास है, बस, काफी योग्यता है।
पी लो! जो कलश छलक रहा है, अंजुलि भर लो!
तीसरा प्रश्नः
कल आपने शूद्र और ब्राह्मण की परिभाषा की। कृपया समझाएं कि मन शूद्र है अथवा ब्राह्मण।
दे ह शूद्र है। मन वैश्य है। आत्मा क्षत्रिय है। परमात्मा ब्राह्मण। इसलिए ब्रह्म
परमात्मा का नाम है। ब्रह्म से ही ब्राह्मण बना है। देह शूद्र है। क्यों? क्योंकि देह में कुछ और है भी नहीं। देह की दौड़ कितनी है? खा लो; पी लो; भोग कर लो; सो जाओ। जीओ और मर जाओ। देह की दौड़ कितनी है! शूद्र की सीमा है यही। जो देह में जीता है, वह शूद्र है। शूद्र का अर्थ हुआः देह के साथ तादात्म्य। मैं देह हूं, ऐसी भावदशाः शूद्र। ___ मन वैश्य है। मन खाने-पीने से ही राजी नहीं होता। कुछ और चाहिए। मन यानी और चाहिए। शूद्र में एक तरह की सरलता होती है। देह में बड़ी सरलता है। देह कुछ ज्यादा मांगें नहीं करती। दो रोटी मिल जाएं। सोने के लिए छप्पर मिल जाए। बिस्तर मिल जाए। जल मिल जाए। कोई प्रेम करने को मिल जाए। प्रेम देने-लेने को मिल जाए। बस, शरीर की मांगें सीधी-साफ हैं; थोड़ी हैं; सीमित हैं। देह की मांगें
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