SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समग्र संस्कृति का सृजन तो इनकार कर दिया। यह तो बहाना था कि शूद्र हो। इस बहाने के पीछे गहरा राजनैतिक दांव था। वह यह था कि मेरा विशिष्ट शिष्य अर्जुन दुनिया में सर्वाधिक प्रथम हो। सबसे ऊपर हो। . फिर राजपुत्र ऊपर हो, तो मुझे कुछ लाभ है। यह शूद्र अगर ऊपर भी हो गया, तो इससे मिलना क्या है? इनकार कर दिया। लेकिन एकलव्य अदभुत था। द्रोणाचार्य, मेरे लिए गंदे नामों में से एक है। एकलव्य, मुझे बहुत प्यारे नामों में से एक है। अपूर्व शिष्य था, शिष्य जैसे होने चाहिए। द्रोणाचार्य ऐसे गुरु, जैसे गुरु नहीं होने चाहिए। एकलव्य ऐसा शिष्य, जैसे शिष्य होने चाहिए। कोई फिकर न की। मन में शिकायत भी न लाया। यह राजनीति दिखायी भी पड़ गयी होगी। लेकिन जिसको गुरु स्वीकार कर लिया, उसके संबंध में क्या शिकायत करनी! जाकर मूर्ति बना ली जंगल में। मूर्ति के सामने ही कर लूंगा।... जरा भी शिकायत नहीं है! क्रोध नहीं है। जिसको गुरु स्वीकार कर लिया, स्वीकार कर लिया। अगर गुरु अस्वीकार कर दे, तो भी शिष्य कैसे अस्वीकार कर सकता है? शिष्य ने तो सोचा होगाः शायद इसमें ही मेरा हित है! इसीलिए उन्होंने अस्वीकार कर दिया। गुरु राजनीतिज्ञ था। शिष्य धार्मिक था। उसने सोचाः मेरा इनकार किया, तो जरूर मेरा हित ही होगा। इससे कुछ लाभ ही होने वाला होगा। नहीं तो वे क्यों इनकार करते! मूर्ति बनाकर मूर्ति की पूजा करने लगा और मूर्ति के सामने ही धनुर्विद्या का अभ्यास शुरू कर दिया। इतनी भावना हो, ऐसी आस्था, ऐसी श्रद्धा हो, तो गुरु की जरूरत भी क्या है ? श्रद्धा की कमी है, इसलिए गुरु की जरूरत है। तो बिना गुरु के भी पहुंच गया। मूर्ति से भी पहुंच गया। श्रद्धा हो, तो मूर्ति जीवंत हो जाती है। और श्रद्धा न हो, तो जीवित गुरु भी मूर्ति ही रह जाता है। सब तुम्हारी श्रद्धा पर निर्भर है। इस मूर्ति को ही मान लिया कि यही गुरु है। तुम देखते रहना-मूर्ति को कहता होगा—मैं अभ्यास करता हूं; कहीं भूल-चूक हो, तो चेता देना। कहीं जरूरत पड़े, तो रोक देना। इस अपूर्व प्रक्रिया में वह उस जगह पहुंच गया, जहां अर्जुन फीका पड़ गया। खबरें उड़ने लगी कि एकलव्य का निशाना अचूक हो गया है। ऐसा अचूक निशाना कभी किसी का देखा नहीं! ऐसी श्रद्धा हो, तो निशाना अचूक होगा ही। यह श्रद्धा का निशाना है, यह चूक ही कैसे सकता है? और जिसको मूर्ति पर इतनी श्रद्धा है, स्वभावतः उसे अपने पर इतनी ही श्रद्धा है। 183
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy