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समग्र संस्कृति का सृजन
छंद दे रहा हूं-दर्शनशास्त्र नहीं। मैं जीवन को एक काव्य दे रहा हूं-दर्शनशास्त्र नहीं। मैं जीवन को प्रेम करता हूं-सिद्धांतों को नहीं। अगर सिद्धांतों में मेरा रस हो, तो मुझे भी उसी जाल में पड़ना पड़ेगा, जिस जाल में पहले सारे लोग पड़ चुके हैं। क्योंकि सिद्धांत की अपनी एक व्यवस्था है।
सिद्धांत कहता है: शरीर है, तो आत्मा नहीं हो सकती। क्योंकि तब सिद्धांत के ऊपर शरीर की सीमा आरोपित हो जाती है। तब सिद्धांत कहता है : अगर आत्मा भी हो, तो शरीर जैसी ही होनी चाहिए। कहां है? दिखायी नहीं पड़ती, जैसा शरीर दिखायी पड़ता है। कहां है? शरीर का तो वजन तौला जा सकता है, आत्मा किसी तराजू पर तुलती नहीं। कहां है तुम्हारी आत्मा? हम शरीर को छिन्न-भिन्न करके देख डालते हैं, हमें कहीं उसका पता नहीं चलता।
जिसने कहा शरीर है, उसने एक तर्क स्वीकार कर लिया कि जो भी होगा, वह शरीर जैसा होना चाहिए, तो ही हो सकता है। अब आत्मा नहीं हो सकती, क्योंकि आत्मा बिलकुल भिन्न है, विपरीत है। ___ जिसने मान लिया कि आत्मा है, वह भी इसी झंझट में पड़ता है। जब आत्मा को मान लिया, कहाः अदृश्य सत्य है, तो फिर दृश्य झूठ हो जाएगा।
तर्क को सुव्यवस्थित करने की ये अनिवार्यताएं हैं। अगर अदृश्य सत्य है, असीम सत्य है, तो फिर सीमित का क्या होगा? फिर जो दिखायी पड़ता है, दृश्य है, उसका क्या होगा? जो छुआ जा सकता है, स्पर्श किया जा सकता है, उसका क्या होगा? तुमने अगर अदृश्य को स्वीकार किया, तो दृश्य को इनकार करना ही होगा। __इसलिए तुम यह बात जानकर चौंकोगे कि कार्ल मार्क्स और शंकराचार्य में बहुत भेद नहीं है। कार्ल मार्क्स कहता है: शरीर है केवल। और शंकराचार्य कहते हैं : आत्मा है केवल! दोनों में कुछ भेद नहीं है। दोनों का तर्क एक ही है कि एक ही हो सकता है। दोनों अद्वैतवादी हैं। दोनों की तर्क-सरणी में जरा भी भेद नहीं है। यद्यपि दोनों एक-दूसरे से विपरीत बात कह रहे हैं, लेकिन मेरे हिसाब से दोनों एक ही स्कूल के हिस्से हैं; एक ही संप्रदाय के हिस्से हैं। क्यों? क्योंकि दोनों ने एक बात स्वीकार कर ली है कि एक ही हो सकता है। और जब एक हो सकता है, तो उससे विपरीत कैसे होगा?
और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि जीवन विपरीत पर खड़ा है। जैसे कि राज जब मकान बनाता है, तो दरवाजों में देखा है, ईंटें चुनता है; दोनों तरफ से विपरीत ईंटें लगाता है। विपरीत ईंटों को लगाकर ही दरवाजा बनता है। नहीं तो बन ही नहीं सकता। अगर एक ही दिशा में सब ईंटें लगा दी जाएं, मकान गिरेगा। खड़ा नहीं रह सकेगा। विपरीत ईंटें एक-दूसरे को सम्हाल लेती हैं। एक-दूसरे की चुनौती, एक-दूसरे का तनाव ही उनकी शक्ति है।
जीवन को तुम सब तरफ से देखो, हर जगह द्वंद्व पाओगे। स्त्री है और पुरुष
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