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________________ एस धम्मो सनंतनो होना निश्चित था। क्योंकि प्रेम भोजन है, अत्यंत जरूरी; अत्यंत पौष्टिक भोजन है। उसके बिना कोई नहीं जी सकता । प्रेम ऐसे ही है, जैसे सांस लेना। बाहर से ही लोगे न सांस ! और तो कोई उपाय नहीं है। अगर बाहर से सांस लेना बंद कर दोगे, तो शरीर घुट जाएगा। और बाहर से प्रेम आना बंद हो जाएगा और जाना बंद हो जाएगा, तो आत्मा घुट जाएगी। भारत की आत्मा घुट गयी प्रेम के अभाव में । पश्चिम ने प्रेम को तो खूब फैलाया है, लेकिन ध्यान का उसे कुछ पता नहीं है। इसलिए प्रेम छिछला है, उथला है। उसमें कोई गहराई नहीं है । उसमें गहराई हो ही नहीं सकती, क्योंकि आदमी स्वीकार ही नहीं करता है कि हमारे भीतर कोई गहराई है । तो प्रेम ऐसे ही है, जैसे और सारे छोटे-मोटे काम हैं । एक मनोरंजन है; शरीर का थोड़ा विश्राम; उलझनों से थोड़ा छुटकारा । लेकिन कोई गहराई की संभावना नहीं है; आंतरिकता नहीं है। दो प्रेमी बस एक-दूसरे की शारीरिक जरूरत पूरी कर रहे हैं; आत्मिक कोई जरूरत है ही नहीं। तो जिस दिन शरीर की जरूरतें पूरी हो गयीं या शरीर थक गया, तो एक-दूसरे से अलग हो जाने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। क्योंकि भीतर तो को जोड़ हुआ ही नहीं था । आत्माएं तो कभी मिली नहीं थीं । आत्माएं तो स्वीकृत ही नहीं हैं। तो बस, हड्डी - मांस-मज्जा का मिलन है। गहरा नहीं हो सकता । पश्चिम ने ध्यान को छोड़ा है, तो प्रेम उथला है। पश्चिम भी गिरेगा; गिर रहा है। गिरना शुरू हो गया है। एक शिखर छू लिया अति का, अब भवन खंडहर हो रहा है। यह अति का परिणाम है। मैं तुम्हें चाहूंगा कि तुम जानो कि तुम्हारे भीतर ध्यान की क्षमता हो और तुम्हारे भीतर प्रेम की क्षमता हो। ध्यान तुम्हें अपने में ले जाए; प्रेम तुम्हें दूसरे में ले जाए। और जितना ध्यान तुम्हारा अपने भीतर गहरा होगा, उतनी तुम्हारी प्रेम की पात्रता बढ़ जाएगी, योग्यता बढ़ जाएगी । और जितनी तुम्हारी प्रेम की पात्रता और योग्यता बढ़ेगी, उतना ही तुम पाओगे : : तुम्हारा ध्यान में और गहरे जाने का उपाय हो गया। इन दोनों पंखों से उड़ो, तो परमात्मा दूर नहीं है। अब तक कोई संस्कृति नहीं बन सकी, दुर्भाग्य से, जो दोनों को स्वीकार करती हो । नहीं बनी; नहीं बनाने का उपाय हुआ, उसका भी कारण है। क्योंकि दोनों को मिलाने के लिए मुझ जैसा पागल आदमी चाहिए! दोनों विरोधी हैं। दोनों तर्क में बैठते नहीं हैं! एक के साथ तर्क बिलकुल ठीक बैठ जाता है। एक को चुनो तो बात बिलकुल रेखाबद्ध, साफ- 5-सुथरी मालूम होती है। दोनों को चुनो, तो दोनों विपरीत हैं, तो फिर व्यवस्था नहीं बनती; दर्शनशास्त्र निर्मित नहीं होता । इसलिए मैं कोई दर्शनशास्त्र निर्मित नहीं कर रहा हूं। मैं सिर्फ जीवन को एक 178
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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