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समग्र संस्कृति का सृजन
मैं तुम्हें वही सिखा रहा हूं कि जीवन की परिपूर्णता को अंगीकार करो। इनकार मत करना कुछ। तुम देह भी हो; तुम आत्मा भी हो। और तुम दोनों नहीं भी हो। तुम्हें दोनों में रहना है और दोनों में रहकर दोनों के पार भी जाना है। तुम न तो भौतिकवादी बनना, न अध्यात्मवादी बनना । दोनों भूलें बहुत हो चुकीं हैं। जमीन काफी तड़फ चुकी है। तुम अब दोनों का समन्वय साधना; दोनों के बीच संगीत उठाना। दोनों का मिलन बहुत प्यारा है। दोनों के मिलन को मैं धर्म कहता हूं।
ये तीन शब्द समझो : भौतिकवादी – नास्तिक । तथाकथित आत्मवादीआस्तिक । दोनों के मध्य में, जहां न तो तुम आस्तिक हो, न तो नास्तिक; जहां हां और ना का मिलन हो रहा है - जैसे दिन और रात मिलते हैं संध्या में; जैसे सुबह रात और दिन मिलते हैं- ऐसे जहां हां और ना का मिलन हो रहा है; जहां तुम नास्तिक भी हो, आस्तिक भी, क्योंकि तुम जानते हो तुम दोनों का जोड़ हो । देह को इनकार करोगे, आज नहीं कल देह बगावत करेगी। आत्मा को इनकार करोगे, आत्मा बगावत करेगी। और बगावत ही पतन का कारण होता है।
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प्रश्न सार्थक है। पूरब ने बड़ी ऊंचाइयां पायीं, लेकिन ऊंचाइयां अपंग थीं। जैसे कोई पक्षी एक ही पंख से आकाश में बहुत ऊपर उड़ गया। कितने ऊपर जा सकेगा ? और कितनी दूर जा सकेगा एक ही पंख से ? शायद थोड़ा तड़फ ले। थोड़ा हवाओं के रुख पर चढ़ जाएं। शायद थोड़ी दूर तक अपने को खींच ले । लेकिन यह ज्यादा देर नहीं होने वाला है। तुम एक पंख देखकर ही कह सकते हो कि यह पक्षी गिरेगा। इसका गिरना अनिवार्य है।
उड़ान होती है दो पंखों पर। लंगड़ा आदमी भी चल लेता है। मगर उसका चलना और दो पैर से चलने में बड़ा फर्क है। लंगड़े आदमी का चलना कष्टपूर्ण है। लंगड़ा आदमी मजबूरी में चलता है । और जिसके पास दोनों पैर हैं और स्वस्थ हैं, वह कभी-कभी बिना कारण के दौड़ता है; नाचता है । कहीं जाना नहीं है, तो भी घूमने के लिए निकलता है।
उन दो पैरों के मिलन में जो आनंद है, वह आनंद अपने आप में परिपूर्ण है ।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को नहीं कह रहा हूं। संसार छोड़कर देख लिया गया। जिन्होंने संसार छोड़ा वे बड़ी बुरी तरह गिरे, मुंह के बल गिरे। मैं अपने संन्यासी को संसार ही सब कुछ है, ऐसा भी नहीं कह रहा हूं। जिन्होंने संसार को सब कुछ माना, वे भी बुरी तरह गिरे ।
मैं तुमसे कहता हूं: संसार और संन्यास दोनों के बीच एक लयबद्धता बनाओ । घर में रहो, और ऐसे जैसे मंदिर में हो। दुकान पर बैठो, ऐसे जैसे पूजागृह में । बाजार में और ऐसे जैसे हिमालय पर हो । भीड़ में और अकेले । चलो संसार में और संसार का पानी तुम्हें छुए भी नहीं, ऐसे चलो। ऐसे होशपूर्वक चलो । तब स्वास्थ्य पैदा होता है।
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