________________
एस धम्मो सनंतनो
भगवान श्रावस्ती में विहरते थे। श्रावस्ती में पंचग्र-दायक नामक एक ब्राह्मण था। वह खेत बोने के पश्चात फसल तैयार होने तक पांच बार भिक्षुसंघ को दान देता था। एक दिन भगवान उसके निश्चय को देखकर भिक्षाटन करने के लिए जाते समय उसके द्वार पर जाकर खड़े हो गए। उस समय ब्राह्मण घर में बैठकर द्वार की ओर पीठ करके भोजन कर रहा था। ब्राह्मणी ने भगवान को देखा। वह चिंतित हुई कि यदि मेरे पति ने श्रमण गौतम को देखा, तो फिर यह निश्चय ही भोजन उन्हें दे देगा और तब मुझे फिर से पकाने की झंझट करनी पड़ेगी। ऐसा सोच वह भगवान की ओर पीठ कर उन्हें अपने पति से छिपाती हुई खड़ी हो गयी, जिससे कि ब्राह्मण उन्हें न देख सके। __उस समय तक ब्राह्मण को भगवान की उपस्थिति की अंतःप्रज्ञा होने लगी और वह अपूर्व सुगंध जो भगवान को सदा घेरे रहती थी, उसके भी नासापुटों तक पहुंच गयी और उसका मकान भी एक अलौकिक दीप्ति से भरने लगा। और इधर ब्राह्मणी भी भगवान को दूसरी जगह जाते न देखकर हंस पड़ी।
ब्राह्मण ने चौंककर पीछे देखा। उसे तो अपनी आंखों पर क्षणभर को भरोसा नहीं आया और उसके मुंह से निकल गया: यह क्या! भगवान! फिर उसने भगवान के चरण छू वंदना की और अवशेष भोजन देकर यह प्रश्न पूछा : हे गौतम! आप अपने शिष्यों को भिक्षु कहते हैं। क्यों भिक्षु कहते हैं? भिक्षु का अर्थ क्या है? और कोई भिक्षु कैसे होता है?
यह प्रश्न उसके मन में उठा, क्योंकि भगवान की इस अनायास उपस्थिति के मधुर क्षण में उसके भीतर संन्यास की आकांक्षा का उदय हुआ। शायद भगवान उसके द्वार पर उस दिन इसीलिए गए भी थे। और शायद ब्राह्मणी भी अचेतन में उठे किसी भय के कारण भगवान को छिपाकर खड़ी हो गयी थी।
तब भगवान ने इस गाथा को कहा:
सब्बसो नाम-रूपस्मि यस्स नत्थि ममायितं। असता च न सोचति स वे भिक्खूति वुच्चति।।
'जिसकी नाम-रूप-पंच-स्कंध में जरा भी ममता नहीं है और जो उनके नहीं होने पर शोक नहीं करता, वही भिक्षु है; उसे ही मैं भिक्षु कहता हूं।'
इसके पहले कि इस सूत्र को समझो, इस छोटी सी घटना में गहरे जाना जरूरी है। घटना सीधी-साफ है। लेकिन उतरने की कला आती हो, तो सीधी-साफ