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बुद्धत्व का आलोक
पास-और प्यासा!
फिर किसी महोत्सव के समय, जब बहुत भिक्षु इकट्ठे हुए, हजारों भिक्षुओं के सामने उन्होंने निश्चित ही कठोर चोट की। कहा ः हट जा वक्कलि! वह बैठा होगा सामने ही। वह देख रहा होगा। वह लगा होगा अपने ही काम में। वह रस पी रहा होगा अपना ही। यद्यपि वह रस ऐसा ही है, जैसे कोई नालियों से रस पीए।
देह में और क्या हो सकता है! बुद्ध की देह में भी नहीं कुछ हो सकता है। किसी की देह में नहीं होता। देह तो एक जैसी है। अज्ञानी की हो कि ज्ञानी की हो, भेद देह में जरा भी नहीं है। भेद है, तो भीतर है। भेद है, तो जागरण का और सोने का है। ___हट जा वक्कलि! हट जा वक्कलि! मेरे सामने से हट जा। ऐसा बुद्ध ने कहा ही नहीं; उसे हटवा भी दिया। ___ वक्कलि को स्वभावतः गहरी चोट लगी। लेकिन अज्ञानी आदमी करुणापूर्ण कृत्यों की भी अपनी ही व्याख्या करता है। उसने सोचा कि ठीक है। तो बुद्ध मुझ पर क्रुद्ध हो गए हैं। तो अब जीने से क्या सार! अब मर जाने में ही सार है।
तब भी जो बुद्ध चाहते थे, वह नहीं समझा। अगर बुद्ध की सुनकर हट गया होता सामने से; चला गया होता दूर पहाड़ी पर; बैठ गया होता आंख बंद करके; कि बुद्ध नाराज हैं, क्योंकि मैं ध्यान नहीं कर रहा हूं; बुद्ध नाराज हैं, क्योंकि मैं समाधि में नहीं उतर रहा हूं। उनकी महाकरुणा कि उन्होंने मुझे हटवाया है, ताकि मैं जाऊं और समाधि में उतरूं। तो ठीक समझा होता। ठीक व्याख्या की होती। मगर गलत व्याख्या कर ली। __ऐसी गलत व्याख्या तुम भी करते चले जाते हो। मैं कुछ कहता हूं; तुम व्याख्या कर लेते हो अपनी। तुम सोच लेते होः इसका मतलब ऐसा! मतलब तुम निकाल लेते हो। शिष्य को चाहिए कि अपना मतलब न डाले। जल्दी न करे मतलब डालने की। मौन बैठे। जो कहा गया है, उस शब्द को अपने भीतर उतरने दे। मतलब करने की जल्दी न करे। तुमने अर्थ निकाला, अनर्थ हो जाएगा। - अब उसने क्या समझा? कि बुद्ध कहते हैं कि अब तू किसी सार का नहीं; असार है। तू योग्य नहीं है; अपात्र है। मर जा। तेरे जिंदा रहने में कोई मतलब नहीं है। भारी अपमान हो गया मेरा-सोचा होगा। हजारों भिक्षुओं के सामने मुझ ब्राह्मण-पुत्र को इस तरह दुत्कारा! कि हट जा वक्कलि। हटाया ही नहीं, इतना भारी अपमान किया! अकेले में कह देते। ____ हालांकि अकेले में वे बहुत बार कह चुके थे और इसने सुना नहीं था। उसने सोचाः अब मेरे जीने से क्या लाभ? जीने में तो एक ही अर्थ था उसके और वह अर्थ था : बुद्ध की देह को देखते रहना!
जब मैं सामने ही न बैठ सकूँगा उनके, तो अब मर जाना उचित है। ऐसा सोच वह गृद्धकूट पर्वत पर चढ़ाः पर्वत से कूदकर आत्मघात के लिए। अंतिम क्षण
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