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एस धम्मो सनंतनो
मिले-जुले। खिले! फूले!
और तुम इस तरह के परिवर्तन अपने भीतर पकड़ ले सकते हो। और वे करीब-करीब गाड़ी के चाक की तरह घूमते हैं। उनमें ज्यादा भेद नहीं होता। जिंदगीभर ऐसा होता है। जैसे स्त्रियों का मासिक-धर्म होता है अट्ठाइस दिन के बाद, फिर और-और लौट आता है। ठीक ऐसा ही वर्तुल है तुम्हारे भीतर भी। - और तुम यह जानकर भी हैरान होओगे कि पुरुषों का भी मासिक-धर्म होता है;
और हर अट्ठाइस दिन के बाद होता है। सिर्फ स्त्रियों के शरीर से खून बाहर जाता है, इसलिए दिखायी पड़ता है। पुरुषों के शरीर से खन बाहर नहीं जाता: लेकिन उनके भीतर चार-पांच दिन के लिए उसी तरह की उथल-पुथल हो जाती है, जैसी स्त्रियों के भीतर होती है। सूक्ष्म उथल-पुथल।
तुमने देखा : जब स्त्रियों का मासिक-धर्म होता है, तो वे ज्यादा खिन्न, उदास, चिड़चिड़ी हो जाती हैं। ठीक ऐसे ही पुरुषों का मासिक-धर्म होता है। चार दिन के लिए वे भी बड़े चिड़चिड़े और बड़े उदास और बड़े उपद्रवी हो जाते हैं। मगर उनको तो पता भी नहीं होता।
इस देश में जो स्त्रियों को हम चार दिन के लिए बिलकुल छुट्टी दे देते थे, उसका कारण यह नहीं था-कारण तुमने गलत समझा है कि स्त्रियां अपवित्र हो जाती हैं। वह कारण नहीं है। अपवित्र क्या होंगी! खून भीतर है, तब अपवित्र नहीं हैं! बाहर जा रहा है, तब तो पवित्र हो रही हैं, अपवित्र कैसे होंगी? और खून अगर अपवित्र है, तो सारा शरीर ही अपवित्र है। अब इसमें और क्या अपवित्रता हो सकती है!
नहीं; उसका कारण मनोवैज्ञानिक था। चार दिन के लिए, जब स्त्री का मासिक-धर्म चलता है, तब वह खिन्न होती, उदास होती, नकारात्मक होती। अगर वह खाना भी बनाएगी, तो उसकी नकारात्मकता उस खाने में विष घोल देगी।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि किसी ने क्रोध से खाना बनाया हो, तो मत खाना। क्योंकि हाथों से प्रतिपल तरंगें जा रही हैं। हाथों से विद्युत प्रवाह जा रहा है। इसलिए तो जो तुम्हें प्रेम करता है, गहन प्रेम करता है, उसके हाथ की बनी रूखी-सूखी रोटी भी अदभुत होती है।
होटल में कितना ही अच्छा खाना हो, कुछ कमी होती है। कुछ चूका-चूका होता है। खाना लाश जैसा होता है; उसमें आत्मा नहीं होती। लाश कितनी ही सुंदर हो, और लिपस्टिक लगा हो, और पावडर लगा हो और सब तरह की सुगंध छिड़की हो, मगर लाश आखिर लाश है। तुम्हें इस लाश में से शायद शरीर के लिए तो भोजन मिल जाएगा, लेकिन आत्मा का भोजन चूक जाएगा। __और जैसे तुम्हारे भीतर शरीर और आत्मा है, ऐसे ही भोजन के भीतर भी शरीर और आत्मा है। आत्मा प्रेम से पड़ती है। ,
तो जब स्त्री उद्विग्न हो, उदास हो, खिन्न हो, नाराज हो, नकार से भरी हो, तब
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