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एस धम्मो सनंतनो
हेलेन केलर सिर्फ चेहरे की आकृति को अनुभव कर सकती है हाथ फेरकर। अधिक लोग ऐसे ही जीवन को टटोल रहे हैं—अंधे की भांति!
ऐसे वक्कलि आया। अंधा तो नहीं था। कम से कम ऊपर से तो नहीं था। आंखें खुली थीं। मगर अटक गया रूप में। जो आंखों ने दिखाया, उसमें ही भटक गया। ठीक आदमी के पास आया, गलत आकांक्षा ने सब खराब कर दिया।
सोचाः भिक्षु हो जाऊं। अब भिक्षु होने का हेतु देखते हैं! संन्यस्त होना चाहता है, लेकिन संन्यस्त होने के पीछे कारण क्या है ? कारण है कि सदा इनके पास रहूंगा फिर। सदा इनका रूप देखता रहूंगा।
भिक्षु हो भी गया। लेकिन जिस दिन संन्यास लिया, उसी दिन से न तो ध्यान किया, न भावना की कोई।
बुद्ध दो तरह की बातें लोगों को कहते। जैसे मैं तुमसे कहता हूं, भक्ति और ध्यान। जो लोग ध्यान कर सकते, उनको ध्यान में लगाते। जो नहीं कर सकते, उनको भावना में लगाते। भावना यानी भक्ति।
बुद्ध भक्ति का उपयोग नहीं करते, क्योंकि वे किसी परमात्मा को नहीं मानते जो आकाश में बैठा है, जिसकी भक्ति की जाए। फिर भावना...। उन्होंने एक नयी प्रक्रिया खोजी, जो भक्ति का ही रूप है बिना भगवान के। भगवान से मुक्त भक्ति के रूप का नाम भावना।
भगवान के चरणों में लगायी गयी जो दृष्टि है, वह भी भावना है। लेकिन उसमें पता है किसी का। तुमने प्रार्थना की। तुमने कहा : हे कृष्ण। या तुमने राम को पुकारो। तुमने आकाश की तरफ देखा। तुम्हारे मन में कोई धारणा है, रूप है। और तुमने जो भाव प्रगट किया, उसमें पता है। तुमने जो पाती लिखी, उसमें पता है राम का। यह भक्ति ।
बुद्ध ने कहाः सिर्फ झको। कोई नहीं है, जिसके सामने झुकना है। झकना ही काफी है। बिना पता झुक जाओ। राम के सामने नहीं। कृष्ण के सामने नहीं। किसी के सामने का सवाल नहीं है; झुक जाओ। जाओ एकांत में और झुक जाओ। और झुकने की कला सीखो। ___अब इसको भक्ति नहीं कह सकते। हालांकि परिणाम वही होगा। इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम राम का नाम लेकर झुके कि कृष्ण का नाम लेकर झुके? किसका नाम लेकर झुके, इससे क्या फर्क पड़ता है! नाम तो बहाने थे झुकने के। बुद्ध ने बहाने हटा दिए।
बुद्ध ने कहा : बहानों में झंझट होती है; बहानों में झगड़ा खड़ा होता है। जो राम के सामने झुकता है, वह उससे लड़ने लगता है, जो कृष्ण के सामने झुकता है। झुकना-वुकना तो भूल जाते हैं; एक-दूसरे के सिर फोड़ने में लग जाते हैं! तुम सिर्फ झुको!
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