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________________ बुद्धत्व का आलोक शूद्र कहते हो? यह शुद्धि कर रहा है; स्वच्छता ला रहा है। इसको शूद्र कहते हो ? शूद्र तुम हो । मल-मूत्र पैदा किया। यह बेचारा ढोकर साफ कर रहा है— इसको शूद्र कहते हो ? इसकी तुम्हारे ऊपर बड़ी कृपा है। अनुकंपा है। इसके चरण छुओ। इसका धन्यवाद मानो । जरा सोचो कि इस नगर में शूद्र एक सात दिन के लिए निर्णय कर लें कि अब नहीं सफाई करनी है, तब तुमको पता चलेगा कि शूद्र क्या कर रहा था। तुम्हारे सुंदर घर भयंकर बदबू से भर जाएंगे ! तब तुम्हें पता चलेगा कि शूद्र कौन है ! यह मल-मूत्र में जो जी रहा है, जिसका जीवन मल-मूत्र के पार नहीं गया है, जिसे पता ही नहीं देह के बाहर कुछ । भोजन कर लेता है; मल-मूत्र से निष्कासित कर देता है; फिर भोजन कर लेता है। ऐसा ही जिसका जीवन है। इंद्रियों से पार जिसे कुछ पता नहीं है, ऐसा आदमी शूद्र है । मल-मूत्र की सफाई करने वाला शूद्र नहीं है । मल-मूत्र को ही जीवन समझ लेने वाला शूद्र है। इससे थोड़ा कोई ऊपर उठता है, तो अंकुर फूटता है; वैश्य बनता है। वैश्य को शूद्र से थोड़ी सी ज्यादा समझ है। उसके भीतर मन में थोड़ी उमंगें उठनी शुरू होती हैं: पद, प्रतिष्ठा, धन, सम्मान, सत्कार । भोजन और कामवासना — इतने ही पर वैश्य समाप्त नहीं होता । वैश्य जीवन के व्यवसाय में लगता है। कुछ और भी मूल्यवान है। लेकिन वैश्य भी सिर्फ अंकुरित हुआ । जो वैश्य की तरह मर जाए बहुत दूर नहीं गया शूद्र से । फिर होता है क्षत्रिय । क्षत्रिय का अर्थ होता है : योद्धा, संकल्पवान । जीवन को अब वैसा ही नहीं जी लेता, जैसा जन्म से पाया है। युद्ध करता है जीवन को निखारने का । उठाता है तलवार । काट देता है, जो गलत है। मिटा देता है, जो व्यर्थ है। सार्थक की तलाश में लगता है। संघर्षरत होता है । जीवन उसके लिए एक चुनौती है, व्यवसाय नहीं । वह भी कुछ शूद्र के लिए जीवन क्षुद्र का भोग है। वैश्य के लिए क्षुद्र से थोड़े ऊपर उठना है, लेकिन जीवन की दिशा व्यवसाय की दिशा है, संघर्ष की नहीं। थोड़ा छीन -झपट लो। चोरी कर लो। धोखा दे दो । क्षत्रिय का आयाम संघर्ष का आयाम है, चुनौती का आयाम है। चाहे सब गंवाना पड़े, लेकिन दांव लगाओ। क्षत्रिय जुआरी है, व्यवसायी नहीं है । क्षत्रिय वृक्ष बन जाता है। जब जूझता है, तो ही कोई वृक्ष बनता है । ये वृक्ष भी जूझते हैं, तो ही ऊपर उठ पाते हैं। इनकी बड़ी संघर्ष की कथा है। जब एक वृक्ष बनना शुरू होता है, तो कितना संघर्ष है उसके सामने ! नीचे जमीन में पड़े पत्थर हैं, जिनको तोड़कर जड़ें पहुंचानी हैं। कठोर भूमि है, जिसमें रास्ता बनाना है; जल-स्रोत खोजने हैं । फिर अकेला ही नहीं खोज रहा है; और बहुत से वृक्ष खोज 147
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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