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________________ बुद्धत्व का आलोक देखता रहता है लोगों के जूते । फिर धीरे-धीरे चमार इतना पारंगत हो जाता है जूतों को देखने में कि जूते को देखकर तुम्हारे संबंध में सब जानकारी कर लेता है। अगर जूते की हालत खराब है, तो जानता है कि तुम्हारी जेब खाली है। जूते की हालत खराब है, तो जानता है कि तुम्हारी हालत कुटी-पिटी है, जैसी तुम्हारे जूते की हालत है। जूते पर चमक है, रौनक है, तो जानता है कि तुम्हारे चेहरे पर भी चमक और रौनक होगी। चेहरे को देखने की जरूरत क्या ? उसके हाथ में जूता है। जूते से तुम्हारे संबंध में सारा तर्क फैला लेता है। जूते से तुम्हारे संबंध में सूचनाएं ले लेता है। दर्जी कपड़े देखता है; आदमी नहीं देखता । और तुम भी विचार करना: तुम क्या देखते हो? तुम भी क्षुद्र को ही देखते होओगे | जो क्षुद्र को देखे, वह शूद्र है। जो क्षुद्र को हटा दे और भीतर छिपे विराट से संबंध बनाए, वही ब्राह्मण है । तो साधारण लोगों में तुम सौंदर्य देखो, यह चल जाएगा। लेकिन बुद्ध के पास आकर भी चूक जाओगे ! जहां ज्योति भीतर की ऐसी जलती है कि चांद-तारे फीके हैं! कि सूरज शरमाए ! जहां भीतर की ज्योति ऐसी जलती कि अंधे को दिख जाए, वहां भी वक्कलि को क्या दिखा ? वक्कलि को दिखा बुद्ध का देह-सौंदर्य ! ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ था, लेकिन शूद्र था । वक्कलि तरुणाई के समय भिक्षाटन करते हुए तथागत के सुंदर रूप को देखकर अति मोहित हो गए। यह एक तरह की कामुकता थी ! इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम बुद्ध के रूप-सौंदर्य पर मोहित हुए कि किसी और के रूप-सौंदर्य पर मोहित हुए। रूप पर जो मोहित हुआ, वह कामुक है। I उसने बाहर की परिधि को ही पहचाना। वह तिजोड़ी के प्रेम में गिर गया। तिजोड़ी के भीतर हीरे रखे हैं, उसकी उसे चिंता ही नहीं है । और देह कितनी ही सुंदर हो, अंततः देह है तो हड्डी-मांस-मज्जा । देह कितनी ही सुंदर हो, अंततः तो मृत्यु में चली जाएगी। अंततः तो कब्र में सड़ेगी या चिता पर जलेगी । देह कितनी ही सुंदर हो, आज नहीं कल कीड़े-मकोड़ों का भोजन बनेगी। देह कितनी ही सुंदर हो, सब मिट्टी में मिल जाएगा। जो देह के प्रेम में पड़ा, वह मिट्टी के प्रेम में पड़ गया। वह घड़े के प्रेम में पड़ गया और घड़े के भीतर अमृत भरा था ! बुद्ध के पास खड़े होकर भी इस आदमी ने अमृत न देखा; इसने घड़ा देखा। घड़ा सुंदर था। घड़े पर कारीगिरी थी । घड़े पर बड़ी मेहनत की गयी होगी। यह घड़े के मोह में पड़ गया। यह घड़े को ही छाती से लगा लिया ! और यह भूल ही गया कि घड़े के भीतर ऐसा अमृत है कि पीओ, तो सदा-सदा के लिए तृप्त हो जाओ, कि सारी क्षुधा मिट जाए, कि सारी भूख मिट जाए, कृतकृत्य हो जाओ। परम अर्थ विराजमान था । ... 145
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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