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साक्षात भगवान बुद्ध ने भी अपना धर्मोपदेश केवल बौद्धों को ही नहीं दिया था। उन्होंने भिक्षुओं को संदेश देते हुए कहा था, "चरथ भिक्खवे चारिके बहुजन हिताय बहुजन सुखाय, देसेथ भिक्खवे धम्मं देवमनुस्सानं, देवमनुष्यों को धर्मोपदेश करो।" ओशो तो उन्हीं के हमसफर हैं। उनके नक्शे-कदम पर चलाते हैं लोगों को।
इस एहसान फरामोश दुनिया को अलविदा कहने तक ओशो अपनी वाणी से अमृत कणों को बिखेरते रहे। कई दीवाने उसमें भीगते रहे, नहाते रहे। उनका मन-मोर पंख फैला कर मगन हो कर नाचता रहा, डोलता रहा, थिरकता रहा।
लेकिन कुछ छदमी दिवाभीत साहित्य-तस्कर चोरी-चोरी, चुपके-चुपके उनको सुनते रहे, पढ़ते रहे, उसमें सराबोर होते रहे। उन्हीं के विचारों को, कथा-कल्पनाओं को कम-अधिक परिवर्तन के साथ तनिक भिन्न शैली में अपनी वाणी और कलम से दोहराते रहे। उसके फलस्वरूप खूब वाहवाही लूटते रहे। लेकिन उन्होंने अपनी जुबान से ओशो का नामोल्लेख करने की ईमानदारी और सभ्यता का परिचय कभी नहीं दिया। या तो वे उनके जानी दुश्मन थे, या फिर आला किस्म के “शब्द-तस्कर" या फिर अव्वल दर्जे के कायर या पाखंडी।
उनको एच.ड्रमंड के शब्दों में पहचाना जा सकता है, "वह धर्मांध है जो विवेक नहीं करता, वह मूर्ख है जो विवेक नहीं कर सकता, और वह गुलाम है जो विवेक करने की हिम्मत नहीं दिखाता।" __ओशो कहते हैं, “भीतर मन की दरिद्रता हो तो आदमी बकवास हो जाता है। शब्दों के वस्त्र ओढ़ लेता है। जिनके पास केवल शब्द हो उनसे सावधान रहना।"
बुद्ध कहते हैं, “न तावता धम्म धरो होति यावता बहुभासति-बहुत बोलने से कोई धर्मधर नहीं होता।"
वे ही लोग छिद्रान्वेषी बन कर ओशो की नुक्ताचीनी करते हैं। बिना पढ़े उन्हें दूषण देते हैं। उस रोशनी की रफ्तार को जान नहीं सकते, क्योंकि उन्हें तो चलने का भी होश नहीं होता। __ओशो के विचारों का सागर आमुख के छोटे से गागर में समेटना उतना आसान नहीं। कतरे में क्या समंदर समा सकता है? “एस धम्मो सनंतनो" नामक धम्मपद के महाभाष्य में प्रतीत्यसमुत्पादवादी, विभाज्जवादी, अनीश्वरवादी, अनात्मवादी, मध्यमार्गी और शून्यवादी बुद्ध को, उन्होंने एक सफल विभज्जवादी की तरह स्पष्ट चित्रित किया है। किसी ने कहा है, "वन हू नोज पाली, नीड्स नो लाईट फ्रॉम आऊटसाईड।"
और यहां तो पाली धम्मपद के साथ-साथ ओशो के आईने का उजियारा भी उपस्थित है। सोने में सुहागा लग गया। ओशो ने जिस कदर बुद्ध-तत्वज्ञान के मर्म को इसमें स्पष्ट किया है, उसे पढ़ कर आदर से माथा झुका कर अनायास यह कहना पड़ता है