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एस धम्मो सनंतनो
'जैसे जुही अपने कुम्हलाए फूलों को छोड़ देती है, वैसे ही हे भिक्षुओ! तुम राग और द्वेष को छोड़ दो।'
दूसरा दृश्यः
श्रावस्ती का एक निर्धन पुरुष हल चलाकर किसी भांति जीवन-यापन करता था। वह अत्यंत दुखी था, जैसे कि सभी प्राणी दुखी हैं।
फिर उस पर बुद्ध की ज्योति पड़ी। वह संन्यस्त हुआ। किंतु संन्यस्त होते समय उसने अपने हल-नंगल को विहार के पास ही एक वृक्ष पर टांग दिया। अतीत से संबंध तोड़ना आसान भी तो नहीं है, चाहे अतीत में कुछ हो या न हो। न हो तो छोड़ना शायद और भी कठिन होता है।
संन्यस्त हो कुछ दिन तो वह बड़ा प्रसन्न रहा और फिर उदास हो गया। मन का ऐसा ही स्वभाव है—द्वंद्व। एक अति से दूसरी अति। इस उदासी में वैराग्य से वैराग्य पैदा हुआ। वह सोचने लगा : इससे तो गृहस्थ ही बेहतर थे। यह कहां की झंझट मोल ले ली! यह संन्यस्त होने में क्या सार है?
इस विराग से वैराग्य की दशा में वह उस हल को लेकर पुनः गृहस्थ हो जाने के लिए वृक्ष के नीचे गया। किंतु वहां पहुंचते-पहुंचते ही उसे अपनी मूढ़ता दिखी। उसने खड़े होकर ध्यानपूर्वक अपनी स्थिति को निहारा—कि मैं यह क्या कर रहा हूं।
उसे अपनी भूल समझ आयी। पुनः विहार वापस लौट आया। फिर यह उसकी साधना ही हो गयी। जब-जब उसे उदासी उत्पन्न होती, वह वृक्ष के पास जाता; अपने हल को देखता और फिर वापस लौट आता।
भिक्षुओं ने उसे बार-बार अपने हल-नंगल को देखते और बार-बार नंगल के पास जाते देख उसका नाम ही नंगलकुल रख दिया!
लेकिन एक दिन वह हल के दर्शन करके लौटता था कि अर्हत्व को उपलब्ध हो गया। और फिर उसे किसी ने दुबारा हल-दर्शन को जाते नहीं देखा। भिक्षुओं को स्वभावतः जिज्ञासा जगी: इस नंगलकुल को क्या हो गया है! अब नहीं जाता है उस वृक्ष के पास! पहले तो बार-बार जाता था।
उन्होंने पूछा : आवुस नंगलकुल! अब तू उस वृक्ष के पास नहीं जाता, बात क्या है?
नंगलकुल हंसा और बोला : जब तक आसक्ति रही अतीत से, जाता था। जब तक संसर्ग रहा, तब तक गया। अब वह जंजीर टूट गयी है। मैं अब मुक्त हूं।
इसे सुन भिक्षुओं ने भगवान से कहा : भंते! यह नंगलकुल झूठ बोलता है। यह अर्हत्व प्राप्ति की घोषणा कर रहा है। यह कहता है, मैं मुक्त हूं!
भगवान ने करुणा से उन भिक्षुओं की ओर देखा और कहाः भिक्षुओ! मेरा पुत्र अपने आपको उपदेश दे प्रव्रजित होने के कृत्य को समाप्त कर लिया है। उसे जो
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