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________________ एस धम्मो सनंतनो उतना खतरा भी बढ़ा। खतरा भी बढ़ता है, साथ ही साथ शिखर भी करीब आ रहा है। दो बातें एक साथ होने लगती हैं। शिखर करीब आ रहा है। अगर मिल गया, तो सदा के लिए मुक्त हो जाओगे। समाधान हो जाएगा। फिर कहीं जाने को न बचा। जब जाने को न बचा, फिर भी नहीं गिर सकते। क्योंकि अब जाते ही नहीं; चलते ही नहीं; उठते ही नहीं। ठहर गए, थिर हो गए। समाधि यानी थिरता। इसलिए कृष्ण ने समाधिस्थ को कहाः स्थितप्रज्ञ, जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो गयी, थिर हो गयी। अकंप हो गयी। जब अकंप हो गए, चलते ही नहीं, तो फिर गिरोगे नहीं। ध्यान में गति है; समाधि में गति का अंत है। पहुंच गए मंजिल पर। ध्यान यात्रा है; भटकने का उपाय है। और जैसे-जैसे ध्यान की ऊंचाई बढ़ती है, वैसे-वैसे भटकने की, गिरने की संभावना बढ़ती है। ज्यादा से ज्यादा सावधानी की जरूरत पड़ती है। फिर एक कारण से और भी गिरने का खतरा बढ़ता है। अगर बाहर की ही बात होती कि खाई-खड्ड बड़े हो गए, तो थोड़े सम्हलकर चलने से चल जाता। लेकिन भीतर भी एक खतरा है। क्योंकि तुम्हारी वासनाएं इसके पहले कि समाधि मिल जाए, तुम पर आखिरी हमला करेंगी। कोई भी जल्दी हार नहीं जाना चाहता! __जब तुम ध्यान के शुरू-शुरू कदम उठाते हो, तो वासना बहुत चिंता नहीं लेती। कोई खतरा नहीं है। लेकिन जब तुम शिखर के करीब पहुंचने लगते हो, तो वासना को साफ होने लगता है कि अब मेरी मौत करीब आयी। दो-चार कदम और कि मैं मरी! इस आदमी का पहुंचना और मेरा मरना एक ही है। तृष्णा का मरना और तुम्हारा पहुंचना एक ही है। तृष्णा मरे, तो तुम पहुंचो। तुम पहुंचे, तो तृष्णा मरी। तो तृष्णा आखिरी जोर मारेगी। __ इसलिए तुम कहानियां पढ़ते हो ऋषि-मुनियों की—कि नग्न अप्सराएं उनके आसपास नाचने लगीं। ये अप्सराएं कहां से आती हैं? स्वर्ग से नहीं आतीं। उर्वशियां स्वर्ग में नहीं बसतीं। उर्वशियां तुम्हारे उर में बसती हैं, इसलिए उनका नाम उर्वशी है। वे तुम्हारे हृदय में बसी हैं। वे तुम्हारी ही कामवासना से उठती हैं। वे तुम्हारी ही तृष्णा का आखिरी हमला हैं। तृष्णा आखिरी चेष्टा कर रही है। आखिरी जाल फेंक रही है। इसके पहले कि पराजय हो जाए, पूरा जोर मारती है। __तो यह जो महाकाश्यप का शिष्य है, ध्यान में अच्छी कुशलता पा लिया था, फिर एक स्त्री के सौंदर्य को देखकर चीवर छोड़कर गृहस्थ हो गया। त्याग कर दिया उसने भिक्षुवेष का। संन्यास त्याग दिया और गृहस्थ हो गया। भूला ध्यान। भूला मार्ग। तृष्णा जीती, वह हारा। तृष्णा जीती, चेतना हारी। बड़े घर का बेटा था। कुलीन घर का बेटा था। समृद्ध घर का बेटा था। तो कभी कुछ कमाया तो था नहीं। कमाना जानता नहीं था। फिर हो गया था भिक्षु, सो कमाने का प्रश्न ही न बचा था। 76
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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