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तृष्णा को समझो तृष्णा को समझा ही नहीं। जिसने तृष्णा समझी, उपाय की नहीं पूछता। समझना ही उपाय है। समझ लिया कि तृष्णा गिरी!
तुम्हें दिखायी पड़ गया कि सांप रास्ते पर है। तुम छलांग लगाकर अलग हो जाते हो। तुम पूछते नहीं: कैसे छलांग लगाऊं? कैसे रास्ता छोडूं? अब क्या करूं? सांप सामने है-क्या करूं? ऐसा अगर तुम पूछ रहे हो, तो एक ही बात सिद्ध होती है कि तुम्हें सांप अभी दिखायी नहीं पड़ा। किसी ने कहा है कि सांप है, और तुमने माना है। लेकिन तुम्हें नहीं दिखायी पड़ा।
घर में आग लगी हो तो-बुद्ध निरंतर कहते थे-घर में आग लगी हो तो आदमी छलांग लगाकर बाहर निकल जाता है। लेकिन अगर कोई पछे कि मेरे घर में आग लगी है, मैं बाहर कैसे निकलूं, तो एक बात समझ लेनाः उसने सुना है कि उसके घर में आग लगी है; अभी देखा नहीं है। किसी ने कहा है कि घर में आग लगी तेरे। लेकिन उसके अनुभव में बात नहीं उतरी। इसलिए पूछता है: कैसे? कैसे उपाय है समय को टालने का। कैसे उपाय है और थोड़ा समय इसी मकान में रह लेने का, स्थगित करने का।
जब मकान में आग लगती है, तो आग का दर्शन ही छलांग बन जाता है। दर्शन में और छलांग में इंचभर का फासला नहीं होता; तत्क्षण छलांग घट जाती है।
इसलिए बुद्ध ने कहा है कि तृष्णा दिखायी पड़ जाए-दिखायी पड़ जाए कि मेरे घर में आग लगी है, तो उसी दृष्टि में, उसी दर्शन में रूपांतरण है।
आज के सूत्र इसी तृष्णा में जागने के सूत्र हैं। पहला दृश्यः
भगवान वेंणुवन में विहार करते थे। उनके अग्रणी शिष्य महाकाश्यप स्थविर का एक शिष्य ध्यान में अच्छी कुशलता पाकर भी एक स्त्री के सौंदर्य को देखकर चीवर छोड़कर गृहस्थ हो गया। . उसके परिवार ने इस स्थिति को महापतन मानकर उस युवक को घर से निकाल दिया। वह और तो कुछ जानता नहीं था, सो चोरी करके जीवन-यापन करने लगा। अंततः चोरी करते रंगे हाथों पकड़ा गया। राजा ने उसे प्राणदंड की आज्ञा दी।
जिस समय जल्लाद उसे मारने के लिए ले जा रहे थे, उस समय भिक्षाटन के लिए जाते हुए महाकाश्यप स्थविर ने उसे देखा। वह तो उन्हें भूल ही चुका था। लेकिन उन्होंने उसे पहचान लिया। महाकाश्यप उसके पास गए और अत्यंत करुणापूर्वक उससे बोले पूर्व के उत्पादित ध्यानों का स्मरण करो। ध्यान नौका है। ध्यान एकमात्र नौका है-मृत्यु से अमृत की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, असत से सत की ओर। स्मरण करो-स्मरण करो-पूर्व के उत्पादित ध्यानों का स्मरण करो।
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