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एस धम्मो सनंतनो
मुञ्च पुरे मुञ्चपच्छतो मज्झे मुञ्च भवस्स पारगू। सब्बत्थ विमुत्तमानसो न पुन जतिजरं उपेहिसि ।।२८६।।
तृ ष्णा को समझा, तो बुद्ध को समझा। क्योंकि तृष्णा को समझ लेने से ही तृष्णा
गिर जाती है; और फिर जो शेष रह जाता है, वही बुद्धत्व है। . बुद्ध को समझने के लिए गौतम बुद्ध को समझना जरूरी नहीं है। बुद्ध को समझने के लिए स्वयं के बुद्धत्व में उतरना जरूरी है। उसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। उससे अन्यथा जिसने समझने की कोशिश की, वह पंडित होकर रह जाएगा। और पांडित्य अज्ञान से भी बदतर है।
अज्ञानी तो निर्दोष होता है; पांडित्य बड़े अहंकार से भर जाता है। अज्ञान के कारण कोई सत्य से नहीं वंचित है; अहंकार के कारण वंचित है। मिटाना है अहंकार को। और अहंकार मिट जाए, तो सब अज्ञान अपने से मिट जाता है।
लेकिन, तृष्णा को समझो, इसका क्या अर्थ? भाषाकोश में अर्थ दिया है। या तृष्णा के संबंध में विचारकों ने, दार्शनिकों ने बहुत बातें कही हैं, सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं; उन्हें समझें।
नहीं; उन सिद्धांतों को समझने से तृष्णा के संबंध में समझ लोगे, लेकिन तृष्णा को नहीं समझ पाओगे। तृष्णा को समझने का कोई बौद्धिक उपाय नहीं है। तृष्णा को समझा जा सकता है : केवल अस्तित्वगत अर्थ में।
तृष्णा में जी रहे हो; जागकर जीने लगो। चल तो रहे हो तृष्णा में; होश सम्हाल लो। अभी भी तृष्णा पकड़ती है, लेकिन तुम बेहोश हो। तुम जरा होश से भर जाओ।
और जब तृष्णा पकड़े, तो समझोः कहां से उठती है? कैसे उठती है? क्यों उठती है? कहां ले जाती है? और बार-बार के परिभ्रमण में भी हाथ क्या लगता है?
कोल्हू का बैल जैसे चलता रहता है, ऐसे तृष्णा में हम जुते हैं। और एक ही स्थान पर कोल्हू का बैल चक्कर काटता है! यात्रा होती भी नहीं; कहीं जा भी नहीं रहा है। बस, वहीं चक्कर काट रहा है!
ऐसे ही तुम भी जन्मों-जन्मों में कहीं नहीं गए हो। उसी जगह चक्कर काट रहे हो! पुनरुक्ति है। जैसे-जैसे जागोगे, वैसे-वैसे यह दिखायी पड़ेगा कि यह यात्रा नहीं है, यात्रा का भ्रम है। पहुंचना तो हो नहीं रहा है; सिद्धि तो फलित नहीं हो रही है; हाथ तो कुछ आ नहीं रहा है; उलटे जा रहा है। पा तो कुछ भी नहीं रहे, अपने को गंवा रहे हो।
यह जैसे-जैसे साफ होने लगेगा और तृष्णा की प्रक्रिया स्पष्ट होने लगेगी, उस स्पष्ट होने में ही तृष्णा से छुटकारा हो जाता है।
तृष्णा से छूटने के लिए कोई उपाय नहीं करने पड़ते। जो उपाय करता है, वह
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