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एस धम्मो सनंतनो ____ 'यह विषरूपी नीच तृष्णा जिसे अभिभूत कर लेती है, उसके शोक वर्षाकाल में वीरण-खस के तृण-की भांति वृद्धि को प्राप्त होते हैं।'
जैसे वर्षा में घास ऊग आता है, सब तरफ घास-पात फैल जाता है; ऐसे ही जिस व्यक्ति को यह तृष्णा पकड़ लेती है, जकड़ लेती है, उसके जीवन में घास-पात फैल जाता है। उसके जीवन में व्यर्थ का विस्तार हो जाता है। क्षुद्र ही क्षुद्र हो जाता है। उसके जीवन में गुलाब के फूल नहीं खिलते। बस, घास-पात होता है।
यो चेतं सहती जीम्मं तण्हं लोके दुरच्चयं । सोका तम्हा पपतन्ति उदविन्दू'व पोक्खरा।।
'जो संसार में इस दुस्त्याज्य नीच तृष्णा को जीत लेता है, उसके शोक उस तरह गिर जाते हैं, जैसे कमल के ऊपर से जल के बिंदु गिर जाते हैं।'
कुछ करना नहीं पड़ता। जो ठीक से देख लेता है तृष्णा को, इसके जाल को, इसकी मूर्छा को, इसके अहंकार को—जो जाग जाता है इसके प्रति उसके जीवन से तृष्णा ऐसे ही विलीन हो जाती है, और ऐसे ही उसके जीवन से सारे शोक विलीन हो जाते हैं, जैसे कमल के ऊपर से जल के बिंदु अपने आप सरकते और गिर जाते हैं; बिना किसी प्रयास के गिर जाते हैं।
फर्क समझ लेना। लोग सोचते हैं : तृष्णा मिटाने को कुछ और करना पड़ेगा। कुछ और करोगे, तो नयी तृष्णा पैदा होगी। तृष्णा मिटाने को लोग कहते हैं : कुछ करना पड़ेगा, तब तृष्णा मिटेगी! तो फिर क्या करोगे? ___ पहले तो एक नयी तृष्णा बनानी पड़ेगी कि मोक्ष पाना है। मुक्ति पानी है। आवागमन से छुटकारा पाना है। यह नयी तृष्णा बनाओ कि मोक्ष पाना है। अब मोक्ष पाकर रहूंगा। और मोक्ष पाने में तृष्णा काटनी पड़ती है, इसलिए तृष्णा काढूंगा।
लेकिन तृष्णा तो कट जाए, यह नयी तृष्णा खड़ी हो गयी; इससे कुछ फर्क न पड़ा। फिर नया घास-पात ऊगेगा। पहले धन के नाम पर ऊगता था, अब धर्म के नाम पर ऊगेगा। पहले शरीर के नाम पर ऊगता था, अब आत्मा के नाम पर ऊगेगा। मगर ऊगेगा, फिर भी तुम घास-पात के ही रहोगे। तुम्हारे भीतर भूसा ही भरा रहेगा। तुम्हारे भीतर ज्योति प्रगट न होगी।
तो बुद्ध क्या कहते हैं? बुद्ध कहते हैं : मोक्ष की तृष्णा न करो; वह भी तृष्णा है। मुक्ति की आकांक्षा न करो, वह भी आकांक्षा है। फिर करो क्या? संसार की जो तृष्णा है, इसे समझो; जागो, होश से भरो। देखो, तृष्णा कैसे तुम्हें चलाती है! कैसा बंदर जैसा उछलवाती है! कैसा मूढ़ बनाती है! गौर से देखो। इसे देखो, इसको पहचानो। इसकी सारी प्रक्रिया को समझ लो। उस समझने में ही तृष्णा ऐसे विलीन होने लगती है, जैसे कमल के ऊपर से जल के बिंदु गिर जाते हैं।
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