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तृष्णा की जड़
लेकिन सकते में तो सभी आ गए। संविग्न तो सभी हो गए। उन्हें रोमांच हो आया। लोगों के रोएं खड़े हो गए। ऐसी अपूर्व घटना घटी। तब भगवान ने उस समय उपस्थित लोगों की चित्त-दशा को देखकर ये गाथाएं कहीं:
मनुजस्स पमत्तचारिनो तण्हा बड्डतिमालुवा विय। सो पलवती हुराहुरं फलमिच्छं व वनस्मि वानरो।।
'प्रमत्त होकर-अहंकार में मूर्छित होकर-आचरण करने वाले मनुष्य की तृष्णा मालवा लता की भांति बढ़ती है।'
मालवा लता देखी! वह जो बिना जड़ के फैल जाती है वृक्षों पर; जिसकी जड़ नहीं होती। ऐसी तृष्णा है। इसकी कोई जड़ नहीं है, फिर भी फैलती चली जाती है। एक जीवन से दूसरे जीवन में; दूसरे से तीसरे जीवन में। एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर, दूसरे से तीसरे पर। वृक्षों का शोषण करती है और फैलती चली जाती है। अपनी कोई जड़ें नहीं होती।
ऐसे ही तृष्णा की लता है। तुम्हारा शोषण करती है। तुम अपशोषित होते हो। तुम्हारा एक जीवन चूस लेती है, फिर दूसरा जीवन चूसती है। ऐसे तुम्हारे अनंत जीवन चूसती है और फैलती चली जाती है। और इसकी कोई जड़ें नहीं हैं।
तृष्णा शोषक है। इसी ने तुम्हें दीन किया; इसी ने तुम्हें दरिद्र किया; इसी ने तुम्हें दुख से भरा; इसी ने तुम्हारे नर्क निर्मित किए। - 'प्रमत्त होकर-अहंकार में मूर्छित होकर-आचरण करने वाले मनुष्य की तृष्णा मालवा लता की भांति बढ़ती है। वह वन में फल की इच्छा से कूद-फांद करते बंदर की तरह जन्म-जन्मांतर में भटकता रहता है।'
__ और तुम्हारा भटकाव ऐसा है, जैसे बंदर कूदता है इस वृक्ष से उस वृक्ष पर; इस वृक्ष से उस पर उछल-कूद करता रहता है। ऐसे ही तुम एक योनि से दूसरी योनि में उछल-कूद कर रहे हो। तुम्हारे जीवन में कोई गंतव्य नहीं, कोई दिशा नहीं, कोई योजना नहीं, कोई अनुशासन नहीं। बंदर की भांति हो तुम।। ___ वासना से भरा हुआ आदमी बंदर की भांति है। और तृष्णा मालवा लता है। सावधान होना इससे। तृष्णा की लता को उखाड़ फेंकना। और यह बंदरपन-एक इच्छा से दूसरी इच्छा-आज मकान बड़ा चाहिए, कल धन और चाहिए, परसों नयी पत्नी चाहिए, फिर यह चाहिए, फिर वह चाहिए। कूदते फिरते हो। सारा जीवन ऐसे ही व्यर्थ हो जाता है।
यं एसा सहती जम्मी तण्हा लोके विसत्तिका। सोका तस्स पबड्वन्ति अभिवटुं व वीरणं।।
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