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________________ समाधि के सूत्र : एकांत, मौन, ध्यान किनारे आए। एक बूढ़ा है, एक जवान है। और नदी के किनारे उन्होंने खड़ी एक सुंदर युवती देखी। बूढ़ा साधु आगे है, जैसा कि नियम है कि बूढ़ा आगे चले, जवान पीछे चले। उस बूढ़े आदमी ने तो जल्दी आंखें झुका लीं। स्त्री अपूर्व सुंदर थी। शायद इतनी सुंदर न भी रही हो, लेकिन बूढ़े संन्यासियों को सभी स्त्रियां सुंदर दिखायी पड़ती हैं। जो स्त्रियों से भागेगा, उसे सभी स्त्रियां सुंदर दिखायी पड़ने लगती हैं। तुम जितना भागोगे, उतनी ही सुंदर दिखायी पड़ने लगती हैं। मगर हो सकता है, सुंदर ही रही हो। वह बहुत विचलित हो गया। और उस स्त्री ने कहा कि मैं डर रही हूं; मुझे नदी के पार जाना है; क्या आप मझे हाथ में हाथ नहीं देंगे? वह बूढ़ा तो सना ही नहीं। वह तो तेजी से भागा। उसने सोचा : सुनना खतरनाक है, क्योंकि उसे अपने मन की हालत दिखायी पड़ रही है। मन कह रहा है : ले लो हाथ में हाथ। यह हाथ प्यारा है। फिर मिले, न मिले! और अपने आप आ रहा है हाथ में, छोड़ो मत। और जितना मन यह कहने लगा...। तो चालीस साल का नियम-व्रत, सब मिट्टी में मिल जाएगा; तो घबड़ाहट बढ़ गयी। वह पसीना-पसीना हो गया होगा उस सांझ। शीतल हवा बहती थी। सूरज ढल गया था। लेकिन वह पसीना-पसीना हो गया होगा। वह तो नदी तेजी से पार करने लगा। उसने तो लौटकर नहीं देखा। उसने तो जवाब नहीं दिया। क्योंकि जवाब में खतरा है। जब वह नदी पार कर गया, तब उसे अचानक याद आयी कि मैं तो पार कर आया, लेकिन मेरा जवान साथी पीछे आ रहा है। कहीं वह झंझट में न पड़ जाए! उसने लौटकर देखा। और झंझट में जवान साथी पड़ गया था उसे लगा। जवान भी आया नदी के तट पर। उस स्त्री ने कहाः मुझे पार जाना है; हाथ में हाथ दे दो। उस जवान ने कहा कि नदी गहरी है, हाथ में हाथ देने से न चलेगा; तू मेरे कंधे पर बैठ जा। वह उसको कंधे पर बिठाकर नदी पार कर रहा था। जब बूढ़े ने लौटकर देखा, तो मध्य नदी में थे वे दोनों। बूढ़ा तो भयंकर क्रोध से और रोष से भर गया। शायद ईर्ष्या का तत्व भी उसमें सम्मिलित रहा होगा कि मैं तो हाथ में हाथ नं ले पाया और यह उसे कंधे पर ला रहा है! ऐसी सुंदर स्त्री! सपने जैसी सुंदर! फूलों जैसी सुंदर! रोष उठा होगा। ईर्ष्या उठी होगी। जलन उठी होगी। मैं चूक गया-इसका पश्चात्ताप उठा होगा। और इस सब का इकट्ठा रूप यह हुआ कि उसने कहा कि यह बर्दाश्त के बाहर है। यह भ्रष्ट हो गया। जाकर गुरु को कहूंगा। कहना ही पड़ेगा। और जब युवक नदी के इस पार आ गया और दोनों आश्रम की तरफ चलने लगे, तो बूढ़ा फिर दो मील तक उससे बोला नहीं। भयंकर क्रोध था। जब वे आश्रम की सीढ़ियां चढ़ते थे, तब बूढ़े ने कहा कि सुनो! मैं इसे छिपा न सकूँगा। यह जघन्य पाप है, जो तुमने किया है। मुझे गुरु को कहना ही पड़ेगा। संन्यासी के लिए स्त्री का स्पर्श वर्जित है। और तुमने स्पर्श ही नहीं किया, तुमने उस युवती को कंधे पर 295
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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