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एस धम्मो सनंतनो
उखाड़ने का मजा...! अब अपने को सताता था। अब दूसरे को सताने का तो उपाय नहीं रहा था। वह तो कठिनाई में पड़ गयी थी बात। अब तो अहंकार पर बहुत ज्यादा फूल चढ़ गए थे। और अहंकार को बहुत प्रतिष्ठा मिल गयी थी। तो किसी को सता तो नहीं सकता था। लेकिन परोक्षरूप से सताता था। जो आए, उसी को कहता था ः छोड़ो संसार, नहीं तो नर्क जाओगे। अब वह नर्क का भय देकर सता रहा था! नर्क खड़ा तो नहीं कर सकता था, लेकिन कम से कम सपनों में नर्क तो डाल ही सकता था तुम्हारे। तुम्हारे मन में तो नर्क का भय पैदा कर ही सकता था।
और जो उसके चक्कर में आ जाता, उसको तत्क्षण मुनि बना देता; उसको नग्न करवा देता। उसको बाल उखाड़ना सिखवा देता। उसको सताने की विधि पकड़ा देता। खुद तो नहीं सता सकता था, लेकिन अब धर्म के नाम पर सताने का प्रचार तो कर सकता था। वही कर रहा था। उसकी काफी ख्याति हो गयी। ऐसे लोग काफी ख्यातिलब्ध हो जाते हैं। लोग उनको महात्मा कहते हैं कि देखो, कितना त्यागी!
अक्सर सौ में निन्यानबे तुम्हारे महात्मा किन्हीं न किन्हीं मानसिक व्याधियों से ग्रस्त होते हैं। उनकी चिकित्सा की जरूरत है, सम्मान की जरूरत नहीं। उनको मनोचिकित्सा की जरूरत है। उन्हें इलाज चाहिए। ___मगर तुम अंधे हो, तुम कैसे देख पाओ कि उन्हें इलाज चाहिए! तुम भी उन्हीं के सिद्धांतों में पाले गए हो। उन्हीं ने तुम्हें सिद्धांत सदियों से सिखाए हैं। उन्हीं के सिद्धांत हैं; उन्हीं सिद्धांतों के कारण तुम पकड़ नहीं पाओगे कि कहीं कुछ भूल हो रही है। सब ठीक लगता है।
अगर ईसाई फकीर अपने को कोड़े मारता है, तो हिंदू को दिखायी पड़ता है कि भूल हो रही है। क्योंकि हिंदू उस सिद्धांत में नहीं पला है। ईसाई को नहीं दिखायी पड़ता कि भूल हो रही है। और जब हिंदु संन्यासी भरी दपहरी में आग जलाकर बैठता है, अपने चारों तरफ धूनी रमाता है, तो हिंदू को नहीं दिखायी पड़ता कि भूल हो रही है, ईसाई को दिखायी पड़ता है कि यह क्या जड़ता है! यह तो आत्म-दमन है। यह तो आत्म-पीड़न है।
और जब जैन मुनि बाल उखाड़ता है, तो हिंदू को दिखायी पड़ता है कि यह क्या पागलपन है! हिंदू ने तो इसको गाली बना रखी है। तुमने एक शब्द सुना है, नंगे-लुच्चे! वह शब्द पहली दफे जैन मुनियों के लिए उपयोग में हुआ था। नंगे रहते हैं और लोंचते हैं बाल, इसलिए नंगे-लुच्चे! वह गाली बन गयी। हिंदू तो उसको गाली की तरह उपयोग करता है। लेकिन जैन को दिखायी नहीं पड़ता कि इसमें कुछ भूल हो रही है। यही तो धर्म है! ___ तुम जिस धारा में पले हो, पुसे हो, जो तुम्हारे मन में संस्कार डाल दिए गए हैं, उन्हीं संस्कारों के आधार पर तुम सोचते हो। इसलिए एक की भूल दूसरे को दिख जाती है, मगर स्वयं को नहीं दिखायी पड़ती!
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