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________________ तृष्णा की जड़ जब दुनीचंद ने उन्हें भोजन परोसा, तो उन्होंने उसकी रोटियां हाथ में उठायीं और जोर से उन रोटियों को मुट्ठी में भींचा। तो खून की बूंद उन रोटियों से टपकी! सैकड़ों लोग देखने इकट्ठे हो गए थे। एक तो नानक ने इतना इनकार किया। मानते नहीं थे। फिर गए हैं। और यह भी कहा है दुनीचंद को कि मुझे ले जाकर तू पछताएगा। मुझे न ले जा। सैकड़ों लोगों ने यह देखा कि उन रोटियों से खून की बूंदें टपकी! लोग पूछने लगे कि यह क्या है? यह कैसे हुआ? तो नानक ने कहा : इसलिए मैं आना नहीं चाहता था। दुनीचंद के धन के पीछे बड़ी दुर्गंध है। यह धन शोषण से मिला है। इसके रुपए-रुपए में आदमियों का खून है। इसलिए मैं आना नहीं चाहता था। __ यहां कभी-कभी सोने की मछली फंस भी जाती है, तो तुम सदा पीछे पाओगे उपद्रव। यहां कभी-कभी पद मिल भी जाता है। एक तो जिंदगी गंवाता है आदमी! अचिरवती नदी के किनारे जाल फैलाए बैठे हैं! कभी-कभी फंस जाती है मछली। तब दूसरी बात पता चलती है कि मछली फंस जाती है। देखने में सोने की मालूम पड़ती है-और भीतर? भीतर सब दुर्गंध है और मल-मूत्र है। बड़े से बड़े पद पर पहुंचकर लोगों को मिला क्या? बहुत से बहुत धन इकट्ठा करके लोगों को मिला क्या? पूछो सिकंदर से। पूछो बड़े धनपतियों से। जितना धन बढ़ता जाता है, उतनी अपनी दरिद्रता का पता चलता है। और जितना पद पर बैठ जाते हैं, उतनी अपनी दीनता का पता चलता है। ऊपर-ऊपर स्वर्ण, भीतर-भीतर नर्क निर्मित हो जाता है। अचिरवती नदी में मल्लाहों ने जाल फेंककर स्वर्ण-वर्ण की अदभुत मछली को पकड़ा। उसके शरीर का रंग स्वर्ण जैसा और उसके मुख से भयंकर दुर्गंध निकलती थी!.. __ शरीर तो स्वर्ण जैसा बहुत बार मिल जाता है। तुम भी जानते हो। तुम किसी सुंदर स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हो। शरीर स्वर्ण जैसा। लेकिन जैसे-जैसे स्त्री को जानना शुरू करते हो, वैसे-वैसे पता चलता है : मुंह से दुर्गंध निकलती है। तुम किसी सुंदर पुरुष के प्रेम में हो। दूर-दूर सब ठीक। दूर के ढोल सुहावने। जैसे-जैसे पास आते हो, वैसे-वैसे जीवन में झंझट बढ़नी शुरू होती है। जैसे-जैसे पास से जानते हो, वैसे-वैसे पता चलता है कि गुलाब तो दूर से दिखते थे, झाड़ी कांटों से भरी है। . यहां सुंदरतम देहें मिल जाती हैं, लेकिन सुंदर आत्माएं कहां? और जब तक सुंदर आत्मा न मिले, तब तक कहां तृप्ति? कैसी तृप्ति? ___ लेकिन दूसरों के लिए यह मत सोचने लगना कि दूसरों के पास स्वर्ण-देह है और सुंदर आत्मा नहीं। अपनी तरफ भी देखना। वही गति तुम्हारी है। ऊपर-ऊपर अच्छे लगते, ऊपर-ऊपर साज-श्रृंगार है, ऊपर-ऊपर शिष्टाचार है, लीपा-पोती
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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