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________________ एस धम्मो सनंतनो तुम्हारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है। ठीक-ठीक चलोगे, तो पहंच जाओगे। ठीक-ठीक नहीं चलोगे, तो चूक जाओगे। __इसलिए गौतम बुद्ध को भगवान कहा है। वे नियम के साथ एकरूप हो गए। वे धर्म के साथ एकरूप हो गए। अब उनकी कोई आकांक्षा नहीं, कोई तृष्णा नहीं। अब वे नदी के साथ बहते हैं। तैरते भी नहीं। कहीं जाना नहीं है। जहां नदी ले जाए वहीं जा रहे हैं। कहीं न ले जाए तो भी ठीक। कहीं ले जाए तो भी ठीक। मझधार में डुबा दे, तो वहीं किनारा। ऐसी परम तथाता की जो अवस्था है, उसको भगवत्ता कहा है। भगवान गौतम बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन में विहरते थे। श्रावस्ती के नगर-द्वार पर बसे हुए केवट्ट गांव के मल्लाहों ने अचिरवती नदी में जाल फेंककर एक स्वर्ण-वर्ण की अदभुत मछली को पकड़ा। इन सारी छोटी-छोटी कथानक की प्रक्रिया को समझना। इनमें छोटे-छोटे शब्दों का मूल्य है। अचिरवती नदी में...। चिर नहीं है नदी; अचिर है, क्षणभंगुर है। अचिरवती नदी में मल्लाहों ने जाल फेंका और एक सोने की मछली को पकड़ा। ऐसे ही तो हम सब मल्लाह हैं और अचिरवती नदी में, संसार की क्षण-क्षण बदलती हुई धारा में जाल फेंके बैठे हैं, अपनी-अपनी बंसी लटकाए बैठे हैं। सब अपनी-अपनी मछली पकड़ने बैठे हैं। कोई पद की मछली, कोई धन की मछली, कोई प्रतिष्ठा की, कोई यश की, कोई प्रसिद्धि की अलग-अलग मछलियों के नाम हों, मगर अचिरवती नदी के किनारे सभी मल्लाह हैं। सभी अपनी बंसी लटकाए, जाल फैलाए बैठे हैं! मछली फंसे! ___ अचिरवती नदी में मल्लाहों ने जाल फेंककर एक स्वर्ण-वर्ण की अदभुत मछली को पकड़ा। _और यहां कभी-कभी जाल में सोने की मछली फंसती भी है। लेकिन हर सोने की मछली के पीछे भयंकर दुर्गंध है। धन मिलता भी है। ऐसा नहीं कि नहीं मिलता। लेकिन धन के पीछे भयंकर दुर्गंध है। नानक के जीवन में उल्लेख है। एक धनपति ने-दुनीचंद उसका नाम था-नानक को निमंत्रित किया भोजन के लिए। नानक समझाने की कोशिश किए, टालने की कोशिश किए, लेकिन दुनीचंद पीछे पड़ गया। माना नहीं। नगरसेठ था। प्रतिष्ठा का सवाल था। उसका निमंत्रण और कोई न माने! अनेक लोग मौजूद थे। उनकी मौजूदगी में उसने चरण छूकर प्रार्थना की थी : कल मेरे घर भोजन करें। और नानक मना करें! दुनीचंद को तकलीफ होने लगी। उसने कहाः चलना ही होगा। उसने सारी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी अपनी। उसने कहाः जो भी दान करना है, करूंगा। नानक ने कहा कि दान का सवाल नहीं। तुम ले चलकर मुझे, दुखी होओगे। नहीं मानते, तो ठीक है, चलूंगा। वे गए। 12
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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