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एस धम्मो सनंतनो
बुद्ध ने संतति कहा है। यह धारा सदा से है; इसको कभी किसी ने बनाया नहीं ।
इसलिए स्रष्टा की धारणा बुद्ध के विचार में जरा भी नहीं है। आकाश में बैठे भगवान की धारणा बुद्ध की परंपरा में बड़ी बचकानी है। वह मनुष्य की कल्पना है।
आकाश में बैठा हुआ नहीं है । कोई न निर्माता है, न कोई नियंता है ।
फिर कैसे यह विराट चल रहा है? प्रश्न उठता है, कैसे यह विराट चल रहा है ? जब कोई सम्हालने वाला नहीं, कोई बनाने वाला नहीं, कोई नियंता नहीं ! इतनी जटिल प्रक्रियाएं कैसी शांति से चल रही हैं ! और कितनी नियमबद्ध !
इस नियमबद्धता को बुद्ध ने धर्म कहा है। इस नियमबद्धता को परम नियम कहा है- एस धम्मो सनंतनो । इसलिए बुद्ध की बात वैज्ञानिकों को रुचती है।
आज पश्चिम में बुद्ध का प्रभाव रोज-रोज बढ़ता जाता है। क्योंकि विज्ञान से बात तालमेल खाती है। विज्ञान भी कहता है : नियम हैं। बस, सब नियम से चल रहा है। जमीन में गुरुत्वाकर्षण है, इसलिए फल नीचे गिर जाते हैं। पानी का नियम है नीचे की तरफ बहना, इसलिए पहाड़ों से उतरकर नदियों में बहता और सागर में पहुंच जाता है। सारी चीजें नियम से चल रही हैं। नियम है, नियंता नहीं है ।
नियम का अर्थ हुआः परमात्मा व्यक्ति की तरह नहीं है, सिद्धांत की तरह है । और जो भी जाग जाता है, वह उस नियम के साथ एक हो जाता है । क्यों ? क्योंकि वह उस नियम से विपरीत की आकांक्षा नहीं करता ।
सोया हुआ आदमी नियम के विपरीत की आकांक्षा करता है। सोया हुआ आदमी ऐसा है, जैसे रेत से निचोड़े और सोचे कि तेल मिल जाए ! जागा हुआ आदमी ऐसा है : तिल को निचोड़ता है, तो तेल पाता है। रेत को नहीं निचोड़ता । जाता है: रेत से तेल नहीं होता। और अगर रेत को निचोड़कर तेल न मिले, तो दुखी नहीं होता। क्योंकि जो नियम के विपरीत है, वह नहीं होगा। फिर लाख प्रार्थनाएं करो, पूजाएं करो, हवन और यज्ञ करो, जो नियम के विपरीत है, नहीं होगा ।
बुद्ध धर्म में चमत्कार के लिए कोई जगह नहीं है । चमत्कार होते ही नहीं । चमत्कार के नाम पर जो होता है सब धोखाधड़ी है। नियम के विपरीत कभी कोई बात नहीं होती। जो होता है, नियम के अनुसार होता है।
तो जो स्थान भगवान का है हिंदू, ईसाई, इस्लाम की परंपरा में, वही स्थान नियम का है - धम्म का, धर्म का - बुद्ध और जैन और लाओत्सू की परंपरा में । जिसको लाओत्सू ने ताओ कहा है, उसी को बुद्ध ने धर्म कहा है।
धर्म शब्द का अर्थ भी होता है, जिसने धारण किया है; जिस पर सब ठहरा है । लेकिन धर्म सिद्धांत, व्यक्ति नहीं । धर्म कोई आदमी की तरह सिंहासन पर नहीं बैठा है। धर्म विस्तीर्ण है प्रकृति के कण-कण में। धर्म छाया है सब जगह।
फिर भगवान का अर्थ अन्यथा हो गया। फिर भगवान का अर्थ बनाने वाला न रहा । बनाने वाला कोई है नहीं । बुद्ध को भगवान कहा है, क्योंकि उन्होंने जाना;
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