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________________ दर्पण बनो आकाश देख लिया है। अब तू इसे लुभा न सकेगा। और इसने अपने भीतर के अमृत के भी कुछ स्वाद ले लिए हैं। इसलिए तू मृत्यु से इसे डरा भी न सकेगा। इसकी समाधि यद्यपि अभी पूरी नहीं हुई, यह ऋषि नहीं हुआ अभी, लेकिन कवि तो निश्चित हो गया है। ___ यह सिर्फ मुहावरा है। यह कहना कि जो शब्दों को आगे-पीछे रखना जानता है, यह सिर्फ मुहावरा है, कवि को प्रगट करने का एक ढंग है। तो दो बातें उन्होंने कहीं : पहली बात यह कही कि यह शास्त्रों का जानकार है, और जानकारी के कारण शास्त्रों से मुक्त हो गया है। और दूसरी बात कही कि यह कवि है, इसे उस परम की झलकें आने लगीं। बूंदा-बांदी होने लगी है। अभी बाढ़ नहीं आ गयी, मगर शुरुआत हो गयी है। जल्दी ही बाढ़ भी आएगी। अब तू इसे डिगा न सकेगा। न तो काम में तु इसे उत्तेजित कर सकता है, और न भय से। न जीवन में इसका आकर्षण रह गया है और न मृत्यु में इसे कोई भय है। मेरा बेटा अमृत के द्वार पर खड़ा है, देहली पर खड़ा है। मंदिर में प्रवेश के बिलकुल करीब है। आखिरी प्रश्न: मैं या तो अतीत की स्मृतियों में डूबा रहता हूं या भविष्य की कल्पनाओं में। वर्तमान तो बस, मेरे लिए एक कोरा शब्द है। मैं क्या करूं? ऐ सी दशा तुम्हारी ही नहीं, सभी की है। यही तो मन का स्वरूप है। मन या तो अतीत में होता है या भविष्य में। मन वर्तमान में हो ही नहीं सकता। इसलिए मन.के लिए वर्तमान शब्द कोरा शब्द है। ___ तुम जरा जांचना, जब भी तुम सोच रहे हो, तो या तो अतीत की सोचोगे-जो हो चुका, बीत चुका। या उसका सोचोगे, जो होने वाला है। लेकिन जो है, उसको सोचने का उपाय कहां! वह तो है ही। सोचने की गुंजाइश कहां? जो है, है। तुम्हारे सोचने से क्या फर्क पड़ता है ? और तुमने सोचा कि तुम चूक जाओगे। क्योंकि सोचने से व्यवधान पड़ेगा। तुम पूछते हो : 'मैं क्या करूं?' दर्पण बनो। मन रहे, तो अतीत और भविष्य में डोलते रहोगे। मन ऐसे है, जैसे घड़ी का पेंडुलम। इस कोने से उस कोने डोलता रहता है। बीच में नहीं ठहरता। 207
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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