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एस धम्मो सनंतनो
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दर्पण बनो । दर्पण ऐसे है, जैसे पेंडुलम बीच में ठहर गया । दर्पण में वह दिखायी पड़ता है, जो है । और मन में वह दिखायी पड़ता है - जो था, या जो होगा। दोनों नहीं हैं। जो था, वह गया। जो होगा, अभी हुआ नहीं। इसलिए मन तुम्हें भरमाता है । मन माया है।
दर्पण बनो। और दर्पण बनने की कला ही ध्यान है या साक्षी । देखो। जब मन में अतीत के विचार चलते हों, तब शांत खड़े होकर देखते रहो - कि यह अतीत जा रहा है। तुम उसके साथ जुड़ो मत। तुम धारा में कूदो मत। तुम तादात्म्य मत करो । तुम पार किनारे पर खड़े रहो ।
नदी बह रही है, तुम किनारे पर बैठ जाओ पालथी मारकर, आसन लगाकर । देखते रहो ः यह मन में अतीत बह रहा है। फिर ढंग बदलता है। नदी मोड़ लेती है। यह मन में भविष्य बह रहा है। तुम देखते रहो। तुम सिर्फ द्रष्टा रहो। उसी द्रष्टा में तुम दर्पण हो जाओगे।
और तुम चकित होओगे : जैसे-जैसे तुम दर्पण बनने लगे, वैसे-वैसे धारा धीमी होने लगी। जैसे-जैसे तुम्हारा साक्षी जगेगा, वैसे-वैसे तुम पाओगे कि नदी की धारा, जो पहले ऐसी थी कि जैसे बरसात की नदी हो, वह ग्रीष्म की नदी हो गयी। सूखने लगी। जलधार क्षीण होने लगी। जो पहले तुम्हें डुबा देती, अब घुटने-घुटने है। तुम मजे से पार हो सकते हो।
और तुम जागते रहो, और तुम जागते रहो, और तुम देखते रहो, और एक दिन तुम पाओगे : धारा नहीं है । और जिस दिन धारा नहीं है, उसी दिन परमात्मा है। ओरे ओ महत्वाकांक्षी मन !
आकाश से उतर
धरती पर आ
माटी की गंधभरी आत्मा को
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दुलरा
बिका नहीं करते हैं सपने
बाजार में
ओढ़ा हुआ सूनापन उतारकर टांग दे
खूंटी पर चिंतन की कैंची से
बखिया न काट तू दिनों, महीनों, वर्षों की
केवल यह वर्तमान जिसमें तू जीता है