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दर्पण बनो
ठीक है। ये गुणवत्ताएं समझ में आती हैं। लेकिन निरुक्त और पद का जानकार है-इसका क्या अर्थ?
अगर तुम बौद्ध पंडितों से पूछो, तो वे गलत अर्थ सदियों से करते रहे हैं, वही तुम्हें बताएंगे। वे यही अर्थ करते रहे हैं : शास्त्र की जानकारी, व्याकरण की जानकारी, भाषा की जानकारी।
ऐसा हुआ, स्वामी राम अमरीका से लौटे। अमरीका में उन्हें बड़ा सम्मान मिला। सम्मान-योग्य व्यक्ति थे। बड़े प्यारे व्यक्ति थे। बड़ी आभा थी। जब अमरीका से लौटे, तो स्वभावतः उन्होंने सोचा : जब पराए इतना समझे, तो अपने तो कितना न समझेंगे!
मगर वहीं उनसे भूल हो गयी। वहीं उनसे चूक हो गयी। उन्हें याद न रहा कि जीसस ने कहा है कि पैगंबर की अपने गांव में पूजा नहीं होती।
वे काशी में आकर ठहरे। स्वभावतः सोचा, इतने लोगों को जगाकर लौटा हूं, तो सबसे पहले काशी ही जाना चाहिए। काशी पंडितों की नगरी! उनका पहला प्रवचन काशी में हुआ। __ वे संस्कृत के ज्ञाता नहीं थे। अरबी और फारसी के ज्ञाता थे, मगर संस्कृत के ज्ञाता नहीं थे। और उनकी जो जीवन-प्रेरणा थी, वह सूफी मत से आयी थी। वस्तुतः उपनिषद से नहीं आयी थी। हालांकि बात तो एक ही है। कहां से आती है, इससे क्या फर्क पड़ता है! सूफियों ने उनके हृदय का गान छेड़ा था। उसी गान को समझकर उपनिषद भी समझ में आ गए, वेद भी समझ में आ गए। मगर जो पहली तरंग उठी थी, वह सूफियाना थी। __ काशी में जो होना था, वह हुआ। बोले। बीच ही में थे कि एक पंडित, काशी के बड़े पंडित, खड़े हो गए। उन्होंने पूछा कि एक सवाल पूछना है।।
स्वामी राम थोड़े चौंके। वे बीच में ही हैं अभी। यह कोई सवाल पूछने की बात नहीं। पूरा हो जाने देते! लेकिन बड़े सरल और सज्जन व्यक्ति थे। उन्होंने कहाः ठीक है। आपका सवाल? पंडित ने जो सवाल पूछा, वह यह थाः आप संस्कृत जानते हैं? व्याकरण जानते हैं? निरुक्त और पद का ज्ञान है?
स्वामी राम ने कहाः संस्कृत का मैं ज्ञाता नहीं हूं। तो हंसा पंडित और पंडित के साथ सारे और पंडित हंसे।
वह काशी की विद्वत-मंडली थी, जो सुनने आयी थी। सुनने शायद कम आयी थी, परीक्षा करने आयी थी। अमरीका में जो प्रतिष्ठा मिली थी, उससे उनको ईर्ष्या पकड़ी होगी, कष्ट हुआ होगा—कि यह कौन महाज्ञानी, जिसको हम जानते भी नहीं! जो काशी में पढ़ा भी नहीं। यह महाज्ञानी हो कैसे गया?
तो सारी भीड़ जो इकट्ठी थी पंडितों की, ब्राह्मणों की, वह भी हंसी। और उन्होंने कहा, उस पंडित ने कहा कि जब आपको संस्कृत का ज्ञान ही नहीं, तो ब्रह्मज्ञान कैसे
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