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एस धम्मो सनंतनो
ऐसी चित्त की दशा कष्टकर लगती है : जब तुम्हारे सब गान सूख जाते हैं; जब तुममें नयी पत्तियां नहीं उमगतीं, नए फल नहीं खिलते। सूखे ठंठ जैसे तुम लगोगे। तुम सहारा खोजोगे। तुम तलाश करोगे: कहीं कोई आशा मिल जाए; कहीं कोई सांत्वना मिल जाए। कहीं कोई फिर से जगा दे टूट गयी आशाओं को। फिर से संवार दे बिसर गए सपनों को। फिर से गति दे दे गीतों को। फिर से कंठ में बोल आ जाएं। फिर तुम झूमने लगो।
नहीं; यह मैं न करूंगा। तुम ऐसे ही काफी इस भ्रांति में भटक लिए। कितने-कितने तो जन्मों से तुम आशाओं के सहारे चल रहे हो, अब निराशा का सहारा लो। कितने दिन तक तो तुमने सांत्वनाएं खोजी, अब सांत्वना मत खोजो। यदि अर्थहीनता है, तो अर्थहीनता सही। अगर सूखा-रूखापन है, तो सूखा-रूखापन सही। अब तुम स्वीकार करो, जीवन जैसा है। अब और अस्वीकार मत करो। __ अस्वीकार कर-करके ही तुमने जीवन को झूठ किया है। अब जीवन की सचाई जैसी है, वैसी ही अंगीकार हो। उसी अंगीकार में से नए का जन्म होगा।
और यह नयी आशा नहीं होगी; यह सत्य होगा। यह तुम्हारा सपमा नहीं होगा। यह सत्य होगा। आशा-निराशा दोनों चली जाएंगी और तुम्हारे भीतर वही शेष रह जाएगा, जो वस्तुतः है।
और उसी में आनंद है, उसी में मुक्ति है।
पांचवां प्रश्नः
भगवान बुद्ध ने महाप्राज्ञ को तृष्णारहित, भयरहित और परिग्रहरहित कहकर यह भी कहा है कि वह निरुक्त और पद का जानकार है, तथा अक्षरों को पहले-पीछे रखना जानता है। निरुक्त पद और अक्षर-विन्यास से प्राज्ञ का क्या संबंध है? यह समझाने की अनुकंपा करें।
बद्ध का वचन तुम्हें हैरानी में डालेगा, क्योंकि वस्तुतः कोई भी संबंध नहीं है।
शब्द के जानकार का, शब्द-विन्यास की कला को जानने वाले का सत्य से क्या संबंध है? और जो निरुक्त और पद का जानकार है, जो शास्त्रों का जानकार है, जो शब्द की अंतरतम व्यवस्था को समझता है, जो व्याकरण और भाषा का राज समझता है, उसका अंतः-प्रज्ञा से क्या संबंध है?
बुद्ध बड़ी अजीब सी बात कहते हैं! यह तो ठीक है कि प्रज्ञावान तृष्णारहित होगा, प्रज्ञावान भयरहित होगा, प्रज्ञावान परिग्रहरहित होगा। यह बात बिलकुल
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