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एस धम्मो सनंतनो
उन्हें छोड़ा ही नहीं, वरन उनके विरोध में भी संलग्न हो गया।
जो इसने बहुत दिनों तक एक बुद्धपुरुष का सत्संग किया था और उनके चरणों में बैठा था, और उनकी छाया में चला था, उसके फल से इसे स्वर्ण जैसा वर्ण मिला है। ऐसे देह तो इसकी स्वर्णमयी हो गयी, क्योंकि बाहर-बाहर से यह उनके साथ था, लेकिन आत्मा से चूक गया। बाहर तो सुंदर हो गया, लेकिन भीतर कुरूप रह गया। बाहर तो बुद्धपुरुष के साथ रहा, भीतर-भीतर विरोध को संजोता रहा। तो बाहर सुंदर हुआ, भीतर कुरूप रह गया। बाहर स्वर्ण हुआ, भीतर सिवाय दुर्गंध के
और कुछ नहीं है। बाहर तो बुद्ध की छाया का परिणाम है; भीतर यह जैसा है, वैसा है। उस अंतर-कुरूपता के कारण ही इसके मुख से भयंकर दुर्गंध निकल रही है।
इसी मुख से इसने काश्यप भगवान का विरोध किया था। और भलीभांति जानते हुए कि यह गलत है, फिर भी विरोध किया था। यह दुर्गंध उस दगाबाजी और धूर्तता और अहंकार की ही गवाही दे रही है।
राजा को इस कथा पर भरोसा न हुआ। हो भी तो कैसे हो! यह कथा कल्पित सी मालूम पड़ती है। फिर प्रमाण क्या है? फिर गवाही कहां है? वह बोला : आप इस मछली से कहलवाएं, तो मानूं! ___भगवान हंसे और अब करुणा से उन्होंने उस राजा की ओर देखा वैसे ही, जैसे पहले मछली की ओर देखा था। और वे मछली से बोले : याद कर! भूले को याद कर! तू ही कपिल है? तू ही वह भिक्षु है, जो महाज्ञानी था? जो काश्यप बुद्ध के चरणों में बैठा? जो उनकी छाया में उठा? ___ मछली बोली : हां, भंते! मैं ही कपिल हूं। और उसकी आंखें आंसुओं से भर गयीं-गहन पश्चात्ताप और गहन विषाद से। और उस क्षण एक अपूर्व घटना घटी। आंसू भरी आंखों के साथ, बुद्ध के समक्ष, वह मछली तत्क्षण मर गयी। उसकी मृत्यु के क्षण में उसका मुंह खुला था, लेकिन दुर्गध विलीन हो गयी थी। __जीते जी दुर्गंध आ रही थी, मरकर तो और भी आनी थी! मरकर तो उनमें भी दुर्गंध आने लगती है, जिनमें दुर्गंध नहीं होती। लेकिन यह अपूर्व हुआ। मछली मर गयी-मुंह खोले, आंख में आंसुओं से भरे। पश्चात्ताप...! लेकिन पश्चात्ताप ही उसे नहला गया, धो गया, पवित्र कर गया। उस पश्चात्ताप के क्षण में उसका अहंकार गल गया।
किसी और बुद्ध के समक्ष अहंकार लेकर खड़ी थी। आज किसी और बुद्ध के समझ क्षमा मांग ली। वे आंसू पुण्य बन गए। वह मछली मर गयी। इससे सुंदर क्षण मरने के लिए और मिल भी न सकता था!
एक सन्नाटा छा गया। सारे भिक्षु इकट्ठे हो गए थे मछली को देखने। फिर यह भयंकर दुर्गंध! जो दूर-दूर थे, जिन्हें पता भी नहीं था, वे भी भागे आए कि बात क्या है? इतनी भयंकर दुर्गंध कैसे उठी? फिर महाराजा को देखा। फिर बुद्ध के ये अदभुत